भारत में अस्पृश्यता के उन्मूलन हेतु किए गए प्रयास
भारत में अस्पृश्यता के उन्मूलन हेतु लंबे समय से ही विभिन्न प्रयास किए जाते रहे हैं। मध्य काल में विभिन्न भक्ति एवं समाज सुधार आंदोलन इस काल के प्रमुख आंदोलन हैं। इसके अतिरिक्त संस्कृतिकरण, धर्मान्तरण तथा धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों के प्रसार द्वारा भी अश्पृश्यता के उन्मूलन हेतु व्यापक प्रयास किए गए।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत सरकार द्वारा एक समतामूलक आधुनिक समाज के निर्माण का लक्ष्य सामने रखा गया और इस लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में अछूतों की प्रस्थिति में सुधार एवं अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु कई महत्वपूर्ण प्रयास किए गए जिसे हम 2 भागों में बांटकर देख सकते हैं
(i) संवैधानिक एवं वैधानिक प्रयास (Constitutional and legislative efforts ):- स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय संविधान ने लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्था का लक्ष्य रखा और इसके लिए स्वतंत्रता समानता व न्याय के मूल्यों को वरीयता दी। इन मूल्यों को पाने के लिए आवश्यक था कि भारतीय जाति व्यवस्था में व्याप्त असमानता और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त किया जाए। इसी संदर्भ में न्याय के लक्ष्यों को प्राप्त करने की दिशा में अस्पृश्यता उन्मूलन हेतु किए गये प्रमुख संवैधानिक प्रयास निम्न हैं:
1. संविधान के द्वारा यह प्रावधान किया गया कि अनुच्छेद 341 (2) के तहत् संसद किसी भी जातीय समूह को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल कर सकती है ताकि उनके कल्याण हेतु विशेष प्रावधान किये जा सकें।
2. अनुच्छेद 46 राज्य को निर्देश देता है कि वह पिछड़े वर्गों विशेषकर अनुसूचित जाति व जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों की रक्षा करे एवं उन्हें सामाजिक अन्याय एवं सभी तरह के शोषण से बचाए।
3. अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को के कानून समक्ष समानता का अधिकार प्रदान करता है।
4. अनुच्छेद द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, या जन्म स्थान के आधार पर सामाजिक या शैक्षणिक भेदभाव को प्रतिबंधित किया गया है।
5. अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का अंत करता है और इस पर आधारित किसी भी आचरण को दण्डनीय घोषित करता है। बाद में अस्पृश्यता अपराध अधिनियम, 1955 और नागरिक सुरक्षा अधिकार अधिनियम, 1976 के तहत् AL इस कानून को और भी सख्त बनाया गया है।
6. अनुच्छेद 340 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग की समस्याओं की जांच के लिए आयोग गठित करने का प्रावधान किया गया है। अनुच्छेद 338 के अन्तर्गत अनुसूचित जातियों के हितों के रक्षार्थ अनुसूचित जाति तथा जनजाति राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया है जो इनके हितों के लिए कार्य करता है। अभी हाल में इस राष्ट्रीय आयोग को अनुसूचित जाति आयोग तथा अनुसूचित जनजाति आयोग के रूप में अलग-अलग कर दिया गया है ।
7. अनुच्छेद 16, अनुच्छेद 330 एवं अनुच्छेद 332 के द्वारा अनुसूचित जातियों को अन्य जातियों के समकक्ष लाने के उद्देश्य से क्रमशः शासकीय नौकरियों में, लोकसभा में एवं विधानसभाओं में उनकी संख्या के अनुपात में आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
8. यह आरक्षण केवल भर्ती में ही नहीं बल्कि उच्च पदों पर पदोन्नति, आयु सीमा में छूट, योग्यता स्तर में छूट, अनुभव में छूट आदि के रूपों में भी लागू किया गया है।
9. इनके लिये शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए आरक्षण का प्रावधान एवं छात्रावासों में आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
10. उपरोक्त के अलावा निम्न जाति के बच्चों के लिए कई अन्य सुविधाएँ भी प्रदान की गई हैं, जैसे- पुस्तकों का प्रावधान, दोपहर भोजन का प्रावधान, छात्रवृत्ति का प्रावधान, स्कूल यूनिफार्म, कोचिंग आदि का प्रावधान ।
(ii) विकास कार्यक्रमों के माध्यम से किए गए प्रयास (Efforts made through development programs):- उपरोक्त संवैधानिक प्रयासों के अलावा इनके प्रस्थिति उन्नयन एवं विकास हेतु कई अन्य कार्यक्रम भी शुरू किए गए हैं जिनमें प्रमुख हैं एकीकृत ग्राम विकास कार्यक्रम (IRDP), राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी, 20 सूत्री कार्यक्रम आदि। 6 वीं योजना के तहत इस दिशा में एक विस्तृत रणनीति बनाई गई है जिसके 3 महत्वपूर्ण घटक हैं
1. विशेष संघटक योजना (SCP) केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों के द्वारा अनुसूचित जातियों के विकास कार्यक्रमों के क्रियान्वयन का पर्यवेक्षण या देख-रेख करना।
2. विशेष केंद्रीय सहायता (SCA) विभिन्न राज्यों के अनुसूचित जातियों के लिये विशेष संघटक योजना बनाना।
3. राज्यों में अनुसूचित जाति विकास निगम (SC DC) की स्थापना।
इन तीनों घटकों के संयुक्त प्रावधान में अनुसूचित जाति के विकास हेतु कई कार्यक्रम चलाए जाते रहे हैं।
उपरोक्त के अलावा स्वयंसेवी संगठनों एवं दलित साहित्यों द्वारा किए गए प्रयास भी इस दिशा में महत्वपूर्ण रहें हैं। निश्चित रूप से उपरोक्त प्रयासों ने भारतीय समाज में अस्पृश्यता जैसी हृदयविदारक घटना पर नियंत्रण स्थापित करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त की है। परंतु आज कई ग्रामीण समाजों में व्याप्त रूढ़ियाँ हैं जिनके कारण अस्पृश्यता की भावना निरंतर जारी है। हाल ही में दक्षिण भारतीय राज्यों में निम्न जाति के लोगों को अस्पृश्य करार देने की घटना सामने आई है। यह जरूर है कि वैज्ञानिक मूल्यों, आधुनिक मूल्यों, तर्कवाद, शिक्षा, धर्मनिरपेक्षीकरण की प्रक्रिया आदि के प्रसार के फलस्वरूप आज अस्पृश्यता के इक्के-दुक्के मामले ही सामने आते हैं। धन के बढ़ते महत्त्व ने जन्मजात प्रस्थिति (Ascribed Status) के स्थान पर अर्जित प्रस्थिति (Achieved Status) के महत्त्व को स्थापित किया है। आज शिक्षा, प्रशिक्षण एवं कौशल विकास के मुक्त अवसरों की उपलब्धता के कारण निम्न जाति के लोग भी योग्यता अर्जित कर विभिन्न आर्थिक-राजनीतिक क्षेत्रों में उच्च स्थानों पर पहुँचने में सफल हो रहे हैं। परिणामतः इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई है।
अस्पृश्यता की स्थिति में उपरोक्त सुधारों के बावजूद अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है। अस्पृश्यता के पूर्णतः उन्मूलन के लिए यह आवश्यक है कि इससे संबंधित कानूनों को कठोरता से लागू किया जाए। साथ ही सरकार द्वारा इन जातियों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान हेतु संबंधित कार्यक्रमों का दृढ़ इच्छाशक्ति एवं पारदर्शिता के साथ क्रियान्वयन किया जाना आवश्यक है। इसके अतिरिक्त अस्पृश्य जातियों में जागरूकता के प्रसार के साथ-साथ आम लोगों में इन जातियों के प्रति संवेदनशीलता एवं मानवीयता की भावना का प्रसार किया जाना भी आवश्यक है।