गेहू (Wheat)
वानस्पतिक नाम : ट्रिटिकम अस्टीवम (Triticum Aestivum)
- धान्य फसलों में गेहूँ की खेती भारत में धान के बाद दितीय खाद्य शस्य हैं
- ट्रिटिकम एस्टीवम तथा ट्रिटिकम ड्यूरम प्रजाति के गेहूँ को बसंत गेहूँ (Spring Wheat) भी कहा जाता हैं, इसकी खेती प्रमुख रूप से उपोष्ण (Sub-tropical) तथा शीतोष्ण (Temperate) जलवायु क्षेत्रों में की जाती है
- dicoccum तथा T. sphaerococcum प्रकार के गेहूँ की खेती शीतोष्ण देशों में की जाती हैं, जहाँ इसे शीत गेहूँ (Winter wheat) के नाम से जाना जाता हैं
- भारतवर्ष में गेहूँ के ट्रिटिकम एस्टीवम सर्वाधिक क्षेत्र, लगभग सम्पूर्ण गेहूँ क्षेत्रफल का 90% प्रतिशत भाग पर उगाई जाती हैं
- ट्रिटिकम एस्टीवम प्रजाति को मैक्सिकन बौनी गेहूँ भी कहाँ जाता हैं | यह प्रजाति भारत में Dr. N.E. Borlaug द्वरा लाई गयी थी
- गेहूँ की ‘शर्वती सोनारा’ प्रजाति सन 1965 में तथा ‘कल्याण सोना’ सन 1970 भारत में आयीं | ये दोनों पजतियाँ ट्रिटिकम अस्टीवम प्रकार की हैं
- विश्व के कुल गेहूँ उत्पादन का लगभग 10% भग ट्रिटिकम ड्यूरम प्रकार की प्रजाति द्वारा उत्पनन्न किया जाता हैं
- भारतवर्ष में कुल गेहूँ उत्पादन का लगभग 3-4% भाग ट्रिटिकम ड्यूरम प्रजाति द्वारा उत्पन्न किया जाता हैं
- ट्रिटिकम ड्यूरम प्रकार के गेहूँ की खेती शुष्क तथा गर्म जलवायु में की जाती हैं | मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा दक्षिणी राजस्थान में पमुख रूप से इसकी खेती की जाती हैं
- ड्यूरम गेहूँ का प्रयोग सेमोलिना (Semolina), मकरानी (Macaroni), नुडिल्स (Noodles) तथा स्नेक (Snack) आदि ब्यंजनों को तैयार करने में किया जाता हैं
- ट्रिटिकम अस्टीवम हैक्सप्लाइड किस्म है जिनकी गुणसूत्र संख्या 21 जोड़े (42 गुणसूत्र) हैं
- Triticum Durum and T. Dicoccum त्रेताप्लाइड किस्मे हैं जिनकी गुणसूत्र संख्या 14 जोड़े (28 गुणसूत्र) होते हैं
- डी० कैंडोल (1884) के अनुसार गेंहूँ का उत्पति स्थान दजला फरात की घाटी हैं
- वेविलोव (1926) के अनुसार गेहूँ का जन्म स्थान अबीसीनिया तथा भूमध्य सागर के क्षेत्र तथा कोमल गेहूँ का जन्म स्थान भारत तथा अफगानिस्तान हैं
- पिसिया गेहूँ (T. aestivum) का जन्म इसा से चौथी शताब्दी से पूर्व माना जाता हैं
- उत्तर प्रदेश हमारे देश का सर्वाधिक क्षेत्रफल में गेंहूँ उत्पन्न करने वाला राज्य हैं
- क्षेत्रफल की दृष्टी से धान के बाद गेहूँ का द्वितीय स्थान हैं
- गेहूँ में विटामिन B1, B2, B6 and E पाए जाते हैं वषा में घुलनशील इन विटामिनों का पिसाई के समय ह्रास हो जाता हैं
- गेहूँ में सेल्युलोज (Cellulose) अधिकांशत: दाने के छिल्के पर ही मिलता हैं
- UP-262 किस्म पंतनगर कृषि विश्वविधालय से विकसित हुई हैं
- WG-357 and WG-377 किस्मे भी पंजाब कृषि विश्विविधालय, लुधियाना द्वारा विकसित हुई हैं
- WH 147 and WH 157 किस्मे, कृषि विश्वविधालय, हिंसार से निकाली गई हैं
- K 65 और K 68 किस्मे, उत्तर प्रदेश कृषि संसथान (अब चंद्रशेखर आजाद कृषि एवं प्रौधोगिकी विश्वविधालय), कानपूर द्वारा विकसित की गई हैं
- HI 7483 (मेघदूत) किस्म, इंदौर केन्द्र द्वारा विकसित की गई है
- मेघदूत, ड्यूरम प्रकार के गेहूँ के एक उत्तम किस्म हैं
- ‘C 306’ विशेषतौर पर ‘चपाती’ के लिये एक उत्तम किस्म हैं
- VL 401 and VL 404 किस्मे विवेकानन्द पर्वतीय कृषि अनुसंधानशाल, अल्मोड़ा द्वारा विकसित की गई हैं
- नर्वदा 4 और नर्वदा 112 किस्मे, मध्य प्रदेश में शुष्क खेती के लिए उपयुक्त हैं
- राज 911 ड्यूरम (कठोर) गेहूँ की बौनी किस्म हैं, जो दुर्गापुर (जयपुर)गेहूँ अनुसन्धान केन्द्र (राजस्थान) द्वारा विकसित की गई हैं
- शैलजा (HS 1138-6-4) किस्म IARI के शिमला केन्द्र द्वारा विकसित की गई हैं यह किस्म गेरुई रोगों के लिए अत्यधिक प्रतिरोधी हैं
- गिरिजा किस्म, IARI के शिमला केन्द्र द्वारा विकसित की गई हैं यह पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त हैं
- HUW 37 (मालवीय 37) किस्म, बनारस हिन्दू विशविधालय (BHU) द्वारा विकसित की गई हैं
- शेरा (HD 1925) किस्म, IARI, नई दिल्ली द्वारा विकसित की गई हैं
- UP 301, CPAN 2016, CAPN 2019 and IC 8354 गेहूँ की अधिक प्रोटीन युक्त किस्मे हैं
- C 306, HI 1136 एवं सुजाता अत्यधिक सुखा सहन करने वाली गेहूँ की प्रजातियाँ हैं
- UP 368 तीन जीन बौनी किस्म डबल रोटी के लिए सर्वोतम हैं
- ऊसर भूमि के लिए ‘K 7410’ किस्म चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविधालय, कानपूर द्वारा विकसित की गई हैं
- करनाल बंट लगाने वाले स्थानों पर HD 2009 (अर्जुन) तथा WL 711 किस्मे नहीं बोनी चाहिए
- रतुआ (Rust) प्रतिरोधी किस्मे हैं K 9107, HP 1731 तथा राज 3765.
- K 8027 (मगहर) तथा K-9465 (गोमती) उत्तर प्रदेश में गेहूँ की असिचित दशा में बुआई के लिए उपयुक्त किस्मे हैं
- K 9003 (उजियार), HP 1731 (राजलक्ष्मी) तथा K 9107 (देवा) उत्तर प्रदेश में सिचित (समय से) बुआई के लिए उपयुक्त किस्में हैं
- K 7903 (हलना), K 9162 (गंगोत्री), K 8020 (त्रिवेणी) तथा HP 1533 (सोलानी) उत्तर प्रदेश में सिंचित (विलम्ब से) बुआई के लिए अनुकूल प्रजातियाँ हैं
- गेहूँ की ड्यूरम प्रकार की प्रजातियाँ हैं : PDW-215, PDW-233, PBW-34, WH-8381, HI-8381 and Raj-1555
- गेंहूँ की ‘श्रेष्ठ’ (HD-2687) किस्म का विकास सन 1999 में उत्तरी पश्चिमी मैदानी क्षेत्र में समय से एवं सिंचित दशा में बुआई के लिए किया गया हैं
- गेहूँ की ‘श्रेष्ठ’ किस्म लोजिंग रोधक तथा भूरी एवं पिली गेरुई रोग के प्रति संशील हैं
- गेहूँ की ‘श्रेष्ठ’ किस्म ‘CPAN-2009’ X ‘HD-2329’ के संकरण से विकसित की गई है
- लवणीय मृदा में गेहूँ की खेती के लिए बीजदर 10-15% अधिक रखनी चाहिए
- लवणीय मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा 20% अधिक देनी चाहिए | कुल नाइट्रोजन का 1/3 N बुआई पर, 1/3 कल्ले फूटते समय तथा शेष 1/3 दाना बनते समय देना चाहिए
- लवणीय मृदा में गेहूँ की खेती के लिए ढैचा की हरी खाद, कार्बनिक खादे व कम्पोस्ट का प्रयोग अधिक करना चाहिए
- लवणीय मृदा में धान-गेहूँ का फसल चक्र अपनाना चाहिए
- लवणीय मृदा में ‘के० 7410’ व ‘सोनालिका’ किस्मे उगायें
- धान के बाद गेहूँ की फसल उगाने पर पहली सिंचाई 28-35 दिन पर करनी चाहिए
- गेंहूँ के साथ आलू, गन्ना व राई की सहफसली खेती की जा सकती हैं
- गन्ने के साथ गेहूँ बोने के लिए, गन्ना अक्टूबर में बोते हैं गन्ने को दों पंक्तियों (90 से०मि०दुरी) के मध्य 2-3 पंक्तियाँ गेहूँ की नोना चाहिय
- गेहूँ व राई की सहफसली खेती को उगाने के लिए गेहूँ व राई का अनुपात 9:1 रखते हैं
- गेहूँ के सात गेहूँ की सहफसली खेती के लिए ‘यू०पी० 319’ तथा ‘के०816’ किस्मे उपयुक्त हैं
- गेहूँ के सिंकुर (Awn) में प्रकाश संशलेषण की क्रिया होती है
- धान-गेहूँ फसल चक्र में गेहूँ का मुख्य खरपतवार गेहुंसा (Phalaris Minor) अधिक पनपता हैं
- गेहुंसा (Phalaris Minor) की रोकथाम के लिए सल्फोसल्फ्युरान नामक शाकनाशी की 25 ग्राम (सक्रीय तत्व) मात्रा प्रति हेक्टेयर प्रयोग करते हैं