17वीं-18वीं शताब्दी में भारत में जनजातीय विद्रोह के कारन एवं प्रभाव
17वीं-18वीं शताब्दी के दौरान, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपनी पहली व्यापारिक चौकी स्थापित की और धीरे-धीरे देश के विभिन्न हिस्सों पर अपने नियंत्रण का विस्तार किया, जिसमें महत्वपूर्ण जनजातीय आबादी वाले क्षेत्र भी शामिल थे। भूमि अधिग्रहण और राजस्व संग्रह की कंपनी की नीतियों के कारण अक्सर आदिवासी समुदायों का विस्थापन हुआ और उनकी पारंपरिक भूमि और संसाधनों का नुकसान हुआ, जिससे पूरे भारत में आदिवासी विद्रोह छिड़ गए।
1855-1856 का संथाल विद्रोह और 1818-1822 का भील विद्रोह भारत के दो सबसे महत्वपूर्ण जनजातीय विद्रोह थे। इन विद्रोहों को कंपनी की नीतियों से बढ़ावा मिला और वे व्यापक और लगातार थे, जिससे अंग्रेजों को उन्हें दबाने के लिए बड़ी सैन्य सेना तैनात करने के लिए मजबूर होना पड़ा। इन विद्रोहों ने अंग्रेजों के लिए चेतावनी का काम किया, जिन्होंने महसूस किया कि उनकी नीतियां भारत की जनजातीय आबादी को अलग-थलग कर रही थीं।
जनजातीय विद्रोहों का क्षेत्र के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने पर भी प्रभाव पड़ा। अंग्रेजीकरण और ईसाईकरण की ब्रिटिश नीतियों को आदिवासी आबादी के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, जिन्होंने इसे अपनी पारंपरिक मान्यताओं और प्रथाओं पर हमले के रूप में देखा।
इसके प्रत्युत्तर में, कंपनी ने कई सुधारों को लागू किया, जिसमें जनजातियों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून, उन्हें स्थानीय शासन में कुछ प्रतिनिधित्व प्रदान करना और उनके मामलों की देखरेख के लिए अलग आदिवासी विभाग बनाना शामिल था। इन सुधारों ने आदिवासी आबादी के प्रति कंपनी की नीतियों में एक महत्वपूर्ण बदलाव को चिह्नित किया।
किंतु फिर भी गहराई से विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि यह सुधार एक दिखावा मात्र थे अंग्रेजों की शोषणकारी प्रवृतियां निरंतर जारी रही, आदिवासी और जनजातियों को शक्ति के बल पर दबा दिया जाता था यही कारण है कि इस काल में भारत के विभिन्न भागों में कोल विद्रोह, पाइका विद्रोह, अहोम विद्रोह जैसे विद्रोह पनपे थे।
इसप्रकार 17वीं-18वीं शताब्दी के दौरान भारत में जनजातीय विद्रोहों का ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की नीतियों और प्रथाओं पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, भले ही अंग्रेजों ने इन विद्रोह को अपनी सैन्य ताकत के बल पर दबा दिया हो किंतु फिर भी इन विद्रोहियों ने उनको सचेत कर दिया था। कंपनी को विद्रोहों के जवाब में कई सुधारों को लागू करने के लिए मजबूर होना पड़ा, और जनजातियों ने क्षेत्र के सांस्कृतिक और सामाजिक ताने-बाने को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।