हिन्दू विवाह सम्बन्धी नियम व निषेध
भारत में हिन्दू विवाह सम्बन्धी निषेधों में अन्तर्विवाह (Endogamy) और बहिर्विवाह (External Marriage) सम्बन्धी निषेध प्रचलित हैं जिन्हें कुछ क्षेत्रीय भिन्नताओं के साथ देखा जा सकता है।
अन्तर्विवाह के अन्तर्गत जाति अन्तर्विवाह का प्रचलन है और जाति से बाहर विवाह को निषिद्ध किया गया है। परम्परागत रूप से प्रजातीय भिन्नता बनाए रखने, जैन व बौद्ध धर्म के प्रभाव एवं मुस्लिमों से रक्षा के लिए तथा जन्म को अधिक महत्व दिये जाने कारण जातीय अन्तर्विवाह (Caste Intermarriage) प्रचलित हुआ है। परन्तु, वर्तमान में जातीय समूहों के प्रति प्रेम, जातीय एकता बनाए रखने की इच्छा, प्रथानुगत दबाव, पहचान को बनाए रखना, जीवनसाथी के चुनाव में माता-पिता की भूमिका और दहेज प्रथा इसका प्रमुख कारण हैं।
बहिर्विवाह सम्बन्धी निषेधों में गोत्र, प्रवर, पिण्ड, टोटम और ग्राम बहिर्विवाह का प्रचलन देखा जाता है। इसके अन्तर्गत हिन्दुओं में समान गोत्र, प्रवर या पिण्ड के सदस्यों के बीच विवाह वर्जित है। हिन्दू गोत्र व्यवस्था में यह माना जाता है कि एक गोत्र के सभी लोग एक ही ऋषि पूर्वज की संतान होने के कारण आपस में रक्त सम्बन्धी हैं। प्रवर का तात्पर्य यज्ञ कराने वाले ऋषि से सम्बन्धित लोग जो धर्म के आधार पर भ्रातृक बंधन में बंध जाते हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार पिता की तरफ से सात पीढ़ियों और माता की तरफ से पांच पीढ़ियों के लोग सपिण्ड माने जाते हैं। इन सभी में भाई-बहन या रक्त सम्बन्ध होने के कारण इनके बीच विवाह को निषेधित किया गया है । हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 द्वारा सगोत्र एवं सप्रवर बहिर्विवाह निषेध को हटाकर केवल सपिण्ड बहिर्विवाह को मान्यता दी गयी है। जनजातियों में समान टोटम समूह के बीच तथा गांव के भीतर विवाह निषिद्ध किया गया है क्योंकि इनके बीच आपसी सम्बन्धों को भाई बहन का सम्बन्ध स्वीकार किया जाता है।