हरित क्रांति के नकारात्मक एवं सकारात्मक प्रभाव
भारत में बढ़ती आय असमानता तथा खाद्यान्न असुरक्षा के निराकरण के उद्देश्य से वर्ष 1965-66 में विश्व स्तर पर डॉ. नॉर्मन बोरलॉग तथा भारत में डॉ एम. एस. स्वामीनाथन के प्रयासों से अनाज उत्पदान में आशातीत वृद्धि को ही हरित क्रांति के नाम से जाना जाता है, इसने भारत को एक ओर खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाया तो दूसरी ओर अनेक पर्यावरणीय समस्याओं को भी जन्म दिया, इसे हम निम्न बिन्दुओं के आधार पर समझ सकते हैं।
हरित क्रांति के नकारात्मक प्रभाव:-
गेंहूं, चावल, ज्वार, बाजरा और मक्का सहित सभी खाद्यान्न का उत्पादन क्रांति स्तर पर हुआ परंतु अन्य फसलों जैसेमोटे अनाज, दलहन और तिलहन को हरित क्रांति के दायरे से बाहर रखा गया था। मृदा से सम्बंधित समस्याएं जैसे मृदा अपरदन, मृदा अम्लीकरण, क्षारीयकरण तथा लवणीयकरण आदि में वृद्धि हुई। भूमिगत एवं सतही जल के अत्यधिक दोहन के साथ-साथ सतही जल का सुपोषण हुआ। खरपतवारनाशी तथा कीटनाशी आदि के प्रयोग से मृदा का विषाक्तीकरण हुआ। कृषि भूमि के विकास से निर्वनीकरण में वृद्धि हुई, जिससे जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा मिला। इसमें किसानों में मध्य आर्थिक तथा सामाजिक विषमता को बल मिला। हरित क्रांति के कारण महिलाओं की स्थिति में आशानुरूप सुधार नहीं हो पाया।
हरित क्रांति के सकारात्मक प्रभाव:- इसके परिणामस्वरूप वर्ष 1978-79 में 131 मिलियन टन अनाज का उत्पादन हुआ और भारत विश्व के सबसे बड़े कृषि उत्पादक देश के रूप में स्थापित हो गया। भारत खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हो गया और केंद्रीय पूल में पर्याप्त भंडार था| खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति शुद्ध उपलब्धता में भी वृद्धि हुई है। हरित क्रांति की शुरुआत से किसानों की आय के स्तर में बढ़ोतरी हुई। हरित क्रांति ने बड़े पैमाने पर कृषि मशीनीकरण को बढ़ावा दिया, जिससे मशीनरी उद्योगों को बल मिला। इसके अलावा रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, खरपतवारनाशी आदि की मांग में भी काफी वृद्धि हुई है।
उपर्युक्त बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट है, कि हालांकि हरित क्रांति ने भारत में खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि की, लेकिन इसने अनेक पर्यावरणीय तथा सामाजिक समस्याओं को भी जन्म दिया, इसीलिए आवश्यक है, कि क्षेत्रीय आवश्यकताओं तथा पर्यावरणीय संवेदनशीलता को देखते हुए कृषि विकास कार्यक्रमों का संचालन किया जाना चाहिए।