सामाजिक सशक्तिकरण पर सामाजिक स्तरीकरण के प्रभाव
समाज के कमजोर वर्गों का विशेष ध्यान रखते हुए सभी लोगों के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की प्रक्रिया सामाजिक सशक्तिकरण कहलाती है। जबकि सामाजिक स्तरीकरण समाजिक असमानता का एक रूप है। किसी भी समाज के समावेशी विकास की पहली शर्त सामाजिक सशक्तिकरण होती है।
भारतीय समाज में व्याप्त असमानता को समाप्त करने के लिए 19वीं शताब्दी में सामाजिक-आर्थिक सुधार आंदोलन प्रारंभ हुए। जिसे स्वतंत्रता पश्चात संवैधानिक तथा विधिक प्रावधानों द्वारा और अधिक व्यवस्थित किया गया।
सामाजिक सशक्तिकरण एक व्यापक एवं बहुआयामी अवधारणा है जिसके अंतर्गत समाज के अधिकार विहीन, वंचित, उपेक्षित, बहिष्कृत, समुदायों का विशेष ध्यान रखते हुए समाज के सभी वर्गों के सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक, आर्थिक अधिकारों, अवसरों, शक्तियों में आदि में वृद्धि करने पर बल दिया जाता है।
उल्लेखनीय है कि सामाजिक स्तरीकरण सामाजिक सशक्तीकरण की विरोधाभाषी है। सामाजिक स्तरीकरण समाज के लोगों का वर्गीकरण उन्हें श्रेणीबद्ध कर देती है। उदाहरण स्वरूप धर्म, जाति, नृजातीयता, लिंग, भाषा, विकलांगता इत्यादि। जिस कारण समाज के कमजोर लोगों की सामाजिक संसाधनों, अवसरों आदि तक तक पहुँच सीमित हो जाती है। अतः यह तय है की सामाजिक स्तरीकरण को समाप्त किए बिना सामाजिक सशक्तीकरण सुनिश्चित नहीं की जा सकती है।