संसदीय विशेषाधिकार एवं मूल अधिकार
भारतीय संविधान एवं परंपराओं के द्वारा भी सांसदों और संसद को विशेषाधिकार प्राप्त हैं। विशेषाधिकार का अभिप्राय, उन विशिष्ट अधिकारों से है, जो सामान्यत: आम नागरिकों को प्राप्त नहीं हैं। उदाहरण के लिए, अनुच्छेद- 105 के अंतर्गत् सांसदों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का असीमित विशेषाधिकार है। अतः सामान्य व्यक्तियों पर वाक् एवं अभिव्यक्ति पर लगने वाला प्रतिबंध सांसदों पर लागू नहीं होते। विशेषाधिकार में यह भी सम्मिलित है कि संसद किसी भी व्यक्ति को सदन से निष्कासित तथा किसी भी मुद्दे को सदन की प्रक्रिया से निकाल सकती है। संविधान में संसदीय विशेषाधिकार एवं प्रक्रियाओं के न्यायिक पुनरावलोकन पर प्रतिबंध है। व्यक्ति के मूल अधिकारों और संसदीय विशेषाधिकारों के बीच संघर्ष उत्पन्न होने पर न्यायपालिका के द्वारा विवाद का समाधान किया गया। यह बिंदु उल्लेखनीय है कि आज भी सांसदों के विशेषाधिकार का पूर्ण निर्धारण (संहिताकरण) नहीं हुआ है। अतः विशेषाधिकार को निर्धारित करने की शक्ति स्वयं संसद के पास ही है। सर्चलाइट वाद में न्यायपालिका ने स्पष्ट रूप में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तुलना में संसदीय विशेषाधिकारों को प्राथमिकता दी। तकनीकी रूप में अनुच्छेद-19 (1) की तुलना में अनुच्छेद-105 और 194 ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।
केशव सिंह वाद के ऐतिहासिक मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपनी सलाहकारी अधिकारिता के अंतर्गत् निर्णय दिया, जिसके अनुसार संसदीय विशेषाधिकारों के नाम पर जीवन का अधिकार, अपराधों के संबंध में संरक्षण का अधिकार और मनमानी गिरफ्तारी के विरुद्ध अधिकार का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। उच्चतम न्यायालय या न्यायपालिका ऐसे व्यक्तियों की जीवन रक्षा के लिए रिट जारी करती है कि यह विशेषाधिकार का उल्लंघन नहीं है, लेकिन केशव सिंह वाद में भी सर्चलाइट उस निर्णय को स्वीकार किया गया, जिसके अंतर्गत् व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तुलना में संसदीय विशेषाधिकार ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। संसदीय विशेषाधिकारों और न्यायिक पुनरावलोकन के मध्य विवाद में न्यायपालिका ने नरसिंह राव केस में नरसिंह राव को संसद के अंतर्गत् कार्यवाही के आधार पर बरी कर दिया। आलोचकों के अनुसार क्या संसदीय विशेषाधिकार के नाम पर भ्रष्टाचार के अधिकार दिए जा सकते हैं।
किहोतो होलोहॉन वाद, 1992 में न्यायपालिका ने तो यहां तक कह दिया था कि लोक सभा अध्यक्ष द्वारा दिए गए दल-बदल निर्णय का भी न्यायिक पुनरावलोकन हो सकता है, क्योंकि लोक सभा अध्यक्ष की भूमिका अर्द्ध-न्यायिक होती है। झारखण्ड विधान सभा के मामले में तो न्यायपालिका ने विश्वास मत प्राप्त करने की तिथि और प्रक्रिया का भी निर्धारण कर दिया। इसे संसदीय विशेषाधिकारों का घोर उल्लंघन कहा गया, क्योंकि विश्वास मत प्राप्त करने की तिथि और प्रक्रिया के निर्धारण का अधिकार सदन को है। इस संबंध में संविधान ने संसद को पूर्ण शक्ति प्रदान की है। ठीक इसी प्रकार ग्यारह सांसदों की बर्खास्तगी के मामले में जब न्यायपालिका ने लोक सभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को नोटिस जारी किया, तो सोमनाथ चटर्जी ने पूरे देश के लोक सभा अध्यक्षों का सम्मेलन बुलाया और उन्होंने यह तर्क दिया कि सांसदों के निष्कासन का अधिकार लोक सभा अध्यक्ष और सदन को है, इस संबंध में न्यायपालिका सदन को कोई आदेश नहीं दे सकती। न्यायपालिका अनुसार, ‘न्यायिक-पुनरावलोकन से न्यायपालिका को वंचित नहीं किया जा सकता। यद्यपि न्यायपालिका ने भी यह माना कि सांसदों के निष्कासन का अधिकार संसद को है, लेकिन न्यायपालिका को भी के न्यायिक-पुनरावलोकन का अधिकार है।