संघीय शासन की चुनौतियां में वैधानिक प्रावधान
संसदीय विधि के द्वारा सहकारी संघवाद के निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं, जो संघ एवं राज्यों के बीच सहयोग को बढ़ावा देते हैं –
1. क्षेत्रीय परिषद्
जवाहर लाल नेहरु के प्रयासों से क्षेत्रीय परिषद्दों का गठन किया गया, जिसकी संस्तुति राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के तहत् किया गया। क्षेत्रीय परिषद्दों का पदेन अध्यक्ष केंद्रीय गृहमंत्री होता है। इसके अलावा क्षेत्रीय परिषदों में विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री क्रमानुसार एक वर्ष के लिए परिषद् के उपाध्यक्ष के रुप में कार्य करते हैं और प्रत्येक राज्य से दो अन्य मंत्री और संघ शासित क्षेत्रों के दो प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं। राज्यों के मुख्य सचिव एवं नीति आयोग के मनोनीत सदस्य परिषद् के सलाहकार के रूप में कार्य करते हैं, जिन्हें परिषद् में मतदान का अधिकार नहीं होता। अतः अध्यक्ष को भी मतदान का अधिकार नहीं होता, परंतु निर्णायक मत देने का अधिकार होता है। भारत में निम्नलिखित पांच क्षेत्रीय परिषद् कार्य कर रही हैं, जिनके अंतर्गत् निम्नलिखित क्षेत्र शामिल हैं-
1. पूर्वी क्षेत्रीय परिषद्:- बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, सिक्किम व पश्चिम बंगाल।
2. पश्चिमी क्षेत्रीय परिषद्:- गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र, दमन व दीव तथा दादर एवं नगर हवेली।
3. मध्य क्षेत्रीय परिषद्:- छत्तीसगढ़, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश।
4. उत्तरी क्षेत्रीय परिषद्:- हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, पंजाब, राजस्थान, दिल्ली तथा चण्डीगढ़।
5. दक्षिणी क्षेत्रीय परिषद्:- आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु तथा पाण्डिचेरी।
उद्देश्य
इसके निम्नलिखित उद्देश्य हैं-
देश के एकीकरण को बढ़ावा देना।
क्षेत्रवाद, भाषायी तथा पृथक्तावाद को रोकने में सहायता करना।
विभाजन के बाद के प्रभावों को दूर करना ताकि पुनर्गठन एकीकरण तथा आर्थिक विकास की प्रक्रिया एक साथ चल सके।
कार्य
सामाजिक नियोजन।
अंतर्राज्यीय परिवहन।
अल्पसंख्यकों से संबंधित मुद्दे।
सीमा विवाद
आर्थिक नियोजन।
परिषद् में शामिल राज्यों में भौगोलिक एवं सांस्कृतिक विशेषताएं लगभग समान होती हैं। परिषद् के द्वारा राज्यों के बीच तथा संघ एवं राज्यों के बीच साझे मुद्दे पर सहयोग संभव है। कृष्णा नदी जल विवाद परिषद् के द्वारा हल किया गया तथा भाखड़ा परियोजना भी परिषद् के सहयोग का परिणाम है।
2. पूर्वोत्तर परिषद्
पूर्वोत्तर परिषद् का गठन वर्ष- 1971 में संसदीय विधि द्वारा किया गया, जिसमें वर्ष 2002 में संशोधन कर सिक्किम को भी शामिल किया गया। इस परिषद् में असम, मणिपुर, मेघालय, नागालैण्ड, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम एवं सिक्किम सहित आठ (8) राज्य हैं, जिसका मुख्यालय शिलांग में है। इस परिषद् में इन राज्यों के राज्यपाल एवं मुख्यमंत्री सम्मिलित होते हैं। राष्ट्रपति के द्वारा इस परिषद् के अध्यक्ष को मनोनीत किया जाता है। यह सामान्यतः संघ सरकार के मंत्रिपरिषद् का सदस्य जो सामान्यतः पूर्वोत्तर राज्यों के विकास का मंत्री तथा साथ ही राष्ट्रपति के द्वारा एक अन्य सदस्य भी मनोनीत किया जाता है, जो परिषद् का उपाध्यक्ष होता है।
यह उल्लेखनीय है कि परिषद् का निर्माण एक सलाहकारी संगठन के रुप में किया गया है, परंतु वर्तमान में परिषद् नियोजन की संस्था के रुप में कार्य कर रही है। इस क्षेत्र में मैदानी क्षेत्र के लोगों को छोड़कर अधिकतर जनसंख्या जनजातीय हैं। यहां प्रत्येक जनजाति अपने आप में एक छोटा समूह है, जिसका अन्य किसी दूसरे समूह के साथ सामाजिक समागम अथवा सामाजिक मेल-मिलाप बहुत कम होता है। इन छोटे-छोटे समूहों को आपस में बांधे रखने के लिए एक मात्र कड़ी प्रशासनिक मशीनरी है। पूर्वोत्तर का क्षेत्र तीन विदेशी राज्यों की सीमाओं से लगे होने के कारण अत्यंत ही संवेदनशील तथा महत्वपूर्ण हैं, जिनमें चीन के साथ लगी सीमाएं अत्यंत संवेदनशील हैं। इसलिए इन 8 पूर्वोत्तर राज्यों के हित को ध्यान में रखते हुए संयुक्त कार्यवाही के सुचारु संचालन के लिए पूर्वोत्तर परिषद् का गठन किया गया है। परिषद् के दो प्रमुख उद्देश्यों में शामिल हैं।
1. पूर्वोत्तर क्षेत्र में लोक व्यवस्था एवं सुरक्षा को सुनिश्चित करना।
2. कार्य समेकित या एकीकृत आर्थिक विकास (Integrated Economic Development) को प्रोत्साहित करना।
कार्य
इसके द्वारा निम्नलिखित कार्य किए जाते हैं
आर्थिक एवं सामाजिक नियोजन, जिसमें राज्यों के साझे हित हों।
अंतर्राज्यीय परिवहन एवं संचार को मजबूत करना।
बाढ़ नियंत्रण अथवा बिजली से संबंधित किसी विषय पर सलाह देना।