शून्य आधारित बजट क्या है? यह पारंपरिक बजट से किस प्रकार भिन्न है
शून्य आधारित बजट एक नई तकनीकी है जिससे सार्वजनिक व्ययों की अपव्ययता में कमी लाई जा सकती है। इस प्रकार के बजट में प्रत्येक क्रिया के लिए शून्य को आधार माना जाता है, कार्यक्रम तैयार करने के पहले उसका मूल्यांकन नई प्रक्रिया के रूप में किया जाता है। भारत में शून्य आधारित बजट की शुरुआत वर्ष 1986 में सार्वजनिक बजट के निर्धारण के संबंध में की गई, पर बजट के अस्त्र के रूप में इसे 2000-2001 से लागू किया गया जिसकी घोषणा वित्त मंत्री ने 1999-2000 में किया।
पारंपरिक बजट और शून्य आधारित बजट के बीच अंतर:-
पारंपरिक बजट में, पिछले वर्ष के बजट को आधार मानकर बजट तैयार किया जाता है। जबकि, जबकि शून्यआधारित बजट के तहत जो बजट बनाया जाता है, उसमे गतिविधियों का पुनर्मूल्यांकन किया जाता है और किसी क्रिया की शुरुआत शून्य को आधार मान कर की जाती है।
पारंपरिक बजटिंग का जोर पिछले व्यय स्तर पर है। जबकि शून्य-आधारित बजट एक नया आर्थिक प्रस्ताव बनाने पर केंद्रित होता है।
पारंपरिक बजट लागत लेखांकन सिद्धांतों पर काम करता है, इस प्रकार, यह अधिक लेखांकन उन्मुख है, जबकि शून्य-आधारित बजट निर्णय-उन्मुख है।
पारंपरिक बजट में, लागत लाभ और व्यय का औचित्य बिल्कुल आवश्यक नहीं है। दूसरी ओर, शून्य-आधारित बजट में लागत और लाभ को ध्यान में रखते हुए आवंटन किया जाता है।
जब स्पष्टता और जवाबदेही की बात आती है तो शून्य-आधारित बजट पारंपरिक बजट से बेहतर प्रतीत होता है।
पारंपरिक बजट एक नीरस दृष्टिकोण का अनुसरण करता है। इसके विपरीत, शून्य-आधारित बजट एक सीधा दृष्टिकोण अपनाता है।
मानव कल्याण, गरीबी उन्मूलन तथा रोजगार सृजन से जुड़े कार्यक्रमों के लिए शून्य आधारित बजट बहुत उपयोगी नहीं है, क्योंकि इनका सालाना मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है जैसे आयुष्मान भारत, सौभाग्य, उज्ज्वला योजना आदि।