मूल कर्त्तव्यों के आलोचना
भाग-4 (क) की आलोचना करते हुए प्रसिद्ध विधि विशेषज्ञ नाना पालकीवाला ने कहा कि ‘मूल कर्त्तव्यों में वर्णित कर्त्तव्यों के तहत् प्रत्येक नागरिकों को वैज्ञानिक मनोवृत्ति और अन्वेषण की भावना का विकास करना चाहिए, लेकिन जिस देश में दो-तिहाई जनसंख्या अशिक्षित हों, तो ऐसे समाज में मूल कर्त्तव्यों का महत्व नहीं होगा । ‘ इन्होंने तो यहां तक कहा कि आपातकाल के द्वारा नागरिकों की स्वतंत्रता का हनन हो रहा है। अन्य आलोचकों ने इस अध्याय के प्रकृति की आलोचना की। इनके अनुसार, संविधान में पहले से ही निदेशक तत्वों का भाग अवादयोग्य है और उसके बाद मूल कर्त्तव्यों के अध्याय को भी अवादयोग्य रूप में रखा गया, जो अतार्किक एवं अप्रासंगिक हैं।
1. अर्थ स्पष्टता का अभाव :- मौलिक कर्त्तव्यों में प्रयोग किए गए शब्दों का अर्थ स्पष्ट नहीं है, जिनकी व्याख्या अलग-अलग होती है। आलोचकों के अनुसार, जिस देश में बच्चों को शिक्षा पूर्ण रूप में प्राप्त न हो, उनसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की अपेक्षा नहीं की जा सकती।
2. मौलिक कर्त्तव्य लोकतांत्रिक भावना के विरोध में :- लोकतांत्रिक देश में जनता की इच्छा का सर्वाधिक महत्व होता है तथा सरकारें एवं व्यवस्था जनता के लिए होती हैं, जबकि मौलिक कर्त्तव्य राज्य को ज्यादा महत्व देते हैं, व्यक्ति को कम। मौलिक कर्त्तव्य जनता से कुछ देने की उम्मीद करते हैं, जो राज्य के पक्ष में हों।