मूल अधिकार और विधि क्या हैं ?
अनुच्छेद-13 में विधि शब्द की व्याख्या की गई है, जिसके अनुसार, यदि मूल अधिकारों एवं संविधान के निर्माण के पहले की विधियों (पूर्व संवैधानिक विधि) के बीच टकराव होता है, तो मूल अधिकार पूर्व संवैधानिक विधियों को ढंक लेती है, जिसे न्यायपालिका ने ‘आच्छादन का सिद्धांत’ (Doctrine of Eclipse) कहा। इसके अनुसार मूल संवैधानिक विधियां समाप्त नहीं होंगी, अपितु यह मूल अधिकारों द्वारा ढक लिया जाएगा। यदि मूल अधिकार समाप्त हो गए, तो पूर्व संवैधानिक विधियां पुनः प्रभावी हो जाएंगी। वर्ष 1860 में निर्मित विधि पूर्व संवैधानिक विधि का उदाहरण है। संविधान वर्ष-1950 में लागू हुआ, जिसमें मूल अधिकारों का प्रावधान किया गया। (अनुच्छेद-13(i))।
राज्य के द्वारा ऐसी विधि का निर्माण नहीं किया जाएगा, जो भाग-3 में वर्णित मूल अधिकारों के विरुद्ध हों या प्रतिकूल हों, तो ऐसी विधियों को न्यायपालिका द्वारा असंवैधानिक घोषित कर दिया जाएगा। राज्य के द्वारा निर्मित विधि का कोई एक भाग मूल अधिकारों के विरुद्ध हो, तो न्यायपालिका केवल उसी विशेष भाग को अवैध घोषित करेगी, समूचे विधि को अवैध घोषित नहीं करेगी। न्यायपालिका के द्वारा विधि के वैध एवं अवैध भागों के बीच अलगाव किया जाता है, जिसे ‘पृथक्करण का सिद्धांत’ (Doctrine of Severability) कहा जाता है, (अनुच्छेद-13(ii))।
अनुच्छेद-13(iii) में विधि की परिभाषा है। इन विधियों में अध्यादेश, उपनियम, विनियम, प्रथा और अधिसूचना भी सम्मिलित हैं। राज्य विधान सभा अथवा भारतीय क्षेत्र में किसी भी अधिकारी द्वारा निर्मित विधियों को भी इसमें सम्मिलित किया जाएगा।
24वें संविधान संशोधन, 1971 द्वारा अनुच्छेद-13 (iv) जोड़ा गया। इसके अनुसार, अनुच्छेद-13 में विधि का उल्लेख किया गया है, जो संविधान संशोधन विधि से पृथक् है । संविधान संशोधन विधि अनुच्छेद- 368 के अंतर्गत् निर्मित होती है, जिसके द्वारा संविधान में कोई अनुच्छेद अथवा भाग जोड़ा जाएगा अथवा इसे परिवर्तित एवं समाप्त किया जा सकता है। संविधान संशोधन के द्वारा मूल अधिकारों का उल्लंघन किया जा सकता है, क्योंकि अनुच्छेद-13 के प्रावधान संविधान संशोधन पर लागू नहीं होते।