भारत में समानता एवं जाति आधारित आरक्षण
एक आधुनिक मूल्य के रूप में समानता का अर्थ मानव मात्र के बीच किसी भी प्रकार के विभेद के अभाव से है। समानता के अंतर्गत सभी व्यक्तियों के लिये अवसरों पर समान अधिकार उपलब्ध कराने का विचार निहित है। भारत में प्राचीनकाल से ही विभिन्न जातियों की विद्यमानता रही है तथा वर्ण मॉडल के तहत ये जातियाँ विभिन्न स्तरों पर अवस्थित रहीं हैं। जातिगत सोपान पर आधारित इस व्यवस्था में उच्च तथा निम्न जातियों के मध्य असमानता रही है तथा निचले स्तर पर अवस्थित जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति निम्न बनी रही है। उच्च जातियों को बहुत से सामाजिक विशेषाधिकार प्राप्त थे जिससे उनकी प्रतिष्ठा बहुत ऊंची थी और साथ ही समाज के संसाधनों और अवसरों पर उनका नियंत्रण था । निम्न जातियों पर कई निर्योग्यताएं थोपते हुए, उन्हें विकास के सभी अवसरों से वंचित कर दिया गया था। उच्च जातियों द्वारा निम्न जातियों का लगातार शोषण होता रहा और उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते रहे हैं। जिससे इनकी स्थिति में लगातार गिरावट होती रही और ब्रिटिश काल में निम्न जातियाँ एक अत्यंत कमजोर और उपेक्षित वर्ग के रूप में देखी जाने लगी।
भारत ने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के पश्चात् एक लोकतंत्रात्मक समाजवादी राष्ट्र के निर्माण का लक्ष्य रखा । वर्षों से समाज के निचले पायदान पर अवस्थित तथा शोषित वर्ग को सामाजिक न्याय के माध्यम से समाज में उचित स्थान सुनिश्चित कराना इसका महत्त्वपूर्ण उद्देश्य था । अतः यह आवश्यक था कि सभी लोगों को जीवन के सभी क्षेत्रों में समान अवसर उपलब्ध कराते हुए दुर्बल वर्गों हेतु विशेष व्यवस्था की जाए ताकि हम एक आधुनिक समतामूलक भारत निर्माण का लक्ष्य प्राप्त कर सकें। सामाजिक समानता एवं सामाजिक न्याय की इसी आवश्यकता को ध्यान में रखकर विभिन्न वर्गों एवं जातियों के उत्थान हेतु विभिन्न रूपों में प्रयास किए गए।
भारतीय संविधान विभिन्न अनुच्छेदों के माध्यम से सामाजिक समानता के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उपबंध करता है। इन्हें दो भागों में बांटकर देखा जा सकता है। पहला भाग अवसरों की औपचारिक समानता से संबंधित है। इसके अंतर्गत संविधान जाति, लिंग, जन्मस्थान, धर्म आदि के आधार पर सभी को समान अवसर उपलब्ध कराता है। संविधान की उद्देशिका में वर्णित ‘प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता’ तथा ‘सामाजिक न्याय’ जैसे शब्दों के माध्यम से सामाजिक असंतुलन दूर कर सभी को समान अवसर की उपलब्धता की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई है। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 एवं 16 के द्वारा सभी व्यक्तियों को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में समानता के अवसर उपलब्ध कराए गए हैं। साथ ही अनुच्छेद 17 के तहत अस्पृश्यता को समाप्त करने का प्रावधान किया गया है।
इसका दूसरा भाग संरक्षणात्मक भेदभाव (Protective Discrimination) की नीति से संबंधित है। भारत में लम्बे समय से शोषण एवं असमानता के शिकार समूहों को एक विशेष श्रेणी में श्रेणीबद्ध कर उन्हें विशेष कल्याणकारी सुविधाएँ उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया है। इन वर्गों को आरक्षण के माध्यम से सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अन्य वर्गों के समकक्ष लाने का प्रयास किया गया है। इसके तहत इनके लिए विभिन्न शिक्षण संस्थानों, नौकरियों तथा संघीय व राज्य विधान मंडलों में सीटों का आरक्षण किया गया है। अनुच्छेद 330, 332 तथा 335 इसी से संबंधित है। अनुच्छेद 46 के द्वारा राज्य को यह स्पष्ट निर्देश दिया गया है कि वह दुर्बल वर्ग के सभी व्यक्तियों के आर्थिक एवं शैक्षणिक हितों का संवर्द्धन करे तथा उन्हें सभी प्रकार के अन्याय एवं शोषण से बचाने का प्रयास करे।
सरकार द्वारा इसके अतिरिक्त विभिन्न योजनागत प्रयासों के माध्यम से सामाजिक समानता स्थापित करने का प्रयास किया गया है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं के निर्माण में समाज के दुर्बल वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर कार्यक्रमों का निर्माण किया जाता है, ताकि इन वर्गों का सामाजिक-आर्थिक उत्थान सम्भव हो और यह वर्ग समतापूर्ण सामाजिक जीवन व्यतीत कर सके। निश्चित तौर पर उपरोक्त प्रयासों के परिणामस्वरूप सदियों से निम्न स्तर का जीवन-य न-यापन कर रहे एवं सामाजिक असमानता के शिकार वर्गों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में अपेक्षित सुधार हुआ है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उच्च प्रस्थितियों को प्राप्त करने के उपरांत इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई है। इनकी स्थिति में इस सकारात्मक परिवर्तन के लिए उपरोक्त प्रयासों के अतिरिक्त कई अन्य तत्व भी भागीदार रहे हैं जिनमें संचार साधनों का विकास, वैज्ञानिक एवं तार्किक दृष्टिकोण का विकास, शिक्षा का प्रसार, आधुनिक मूल्यों का प्रसार आदि प्रमुख रहे हैं। परंतु अभी भी हम एक समानतापूर्ण एवं न्याययुक्त समाज के निर्माण के लक्ष्य की प्राप्ति से दूर हैं।
अतः आवश्यक है कि सामाजिक समानता एवं सामाजिक न्याय की स्थापना के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु उपरोक्त प्रयासों को निरंतर जारी रखा जाए । सरकार के अतिरिक्त आम जनता के स्तर पर भी इसके लिए प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। साथ ही यह भी आवश्यक है कि समाज के दुर्बल वर्गों को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया जाए।