भारत में जाती व्यवस्था की निरंतरता एवं इनके करक का मूल्याकंन
तमाम परिवर्तनों के बावजूद समकालीन भारत में जाति प्रथा अपने अनुकूलन की अद्भुत क्षमता एवं समकालीन प्रकार्यों (Contemporary Function) के कारण अपनी निरंतरता को बनाए हुए है। आज भी भारत के ग्रामीण समाजों में व्यक्ति की पहचान में उनकी जाति की भूमिका महत्वपूर्ण बनी हुई है। आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति की प्राप्ति की होड़ में विभिन्न जातियों में सावयवी एकता (Organic Unity) (परंपरागत जजमानी व्यवस्था के रूप में पाई जाने वाली एकता) की जगह प्रतिस्पर्धात्मक एकता (Competitive Unity) का विकास हुआ है। शहरों में भी अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु जातिवाद एक प्रमुख क्रियाविधिकी के रूप में क्रियाशील है। मध्य बिहार एवं उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षों में हुए जातीय दंगे, नरसंहार तथा पश्चिम उत्तर प्रदेश में अंतर्विवाह करने वाले जोड़ों की नृशंस हत्याएं जाति की मजबूत होती प्रवृत्ति को दर्शाते हैं। आज राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने की प्रवृत्ति ने एक साधन के रूप में जाति के महत्व को काफी बढ़ा दिया है।
अतः निष्कर्ष है कि आज तमाम परिवर्तनों के बावजूद जाति अपनी निरंतरता को बनाये हुए है अर्थात् जाति एक साथ कमजोर (कुछ क्षेत्रों में होने वाले परिवर्तन के संबंध में) और मजबूत (कुछ क्षेत्रों में विद्यमान निरंतरता के संबंध में) दोनों हुई है।