भारत में जाति-व्यवस्था के दोष
एक ओर जहाँ हमारी जाति व्यवस्था में कई गुण पाये जाते हैं वहीं यह कई दोषों से भी युक्त है, जो निम्नवत् हैं
1. चूँकि व्यक्ति को अपने जातीय व्यवसाय को ही करना पड़ता है, जिसे वह अपनी इच्छा अथवा अनिच्छा के अनुसार बदल नहीं सकता, अतएव इसने श्रम की गतिशीलता को रोका है।
2. इसने अस्पृश्यता (Untouchability) को जन्म दिया है। इसके अतिरिक्त इसने अन्य दोषों, यथा – बाल विवाह, दहेज पर्दा प्रणाली और जातिवाद को भी जन्म दिया है। प्रथा, 3. इसने एक जाति को दूसरी जाति से पृथक करके तथा उनके बीच किसी भी सामाजिक अन्तर्क्रिया (Social Interaction) को प्रतिबन्धित करके हिन्दू समाज में सद्भावना एवं एकता के विकास को रोका है।
4. जाति व्यवस्था में अनुवांशिक व्यवसाय (Hereditary Occupation) के कारण व्यक्ति अपनी योग्यता व रुचि के अनुसार कोई अन्य व्यवसाय नहीं अपना सकता । यह लोगों की क्षमताओं का पूर्ण उपयोग नहीं करती, जिससे यह अधिकतम उत्पादन में बाधक सिद्ध होती है।
5. जाति व्यवस्था देश में राष्ट्रीय एकता के विकास में बाधक सिद्ध हुई है। जाति-भक्ति की भावना ने दूसरी जातियों के प्रति घृणा उत्पन्न की जो राष्ट्रीय चेतना के विकास के लिए अनुकूल नहीं है।
6. यह राष्ट्र की सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति में बड़ी बाधक रही है। कर्म के सिद्धान्त में विश्वास करने के कारण लोग परम्परावादी हो जाते हैं। चूँकि उनकी आर्थिक स्थिति निश्चित होती है, इससे उनमें गतिशीलता के प्रति उदासीनता देखी जाती है।
7. जाति-व्यवस्था अप्रजातंत्रीय (Undemocratic) है क्योंकि इसने सबको जाति, रंग अथवा विश्वास के भेदभाव के आधार पर समानता के अधिकार से वंचित कर दिया है।
8. जाति-व्यवस्था ने जातिवाद को जन्म दिया है। इसमें किसी जाति के सदस्यों में जातिगत भावनाएँ होती हैं और वह
न्याय, समता, भ्रातृत्व जैसे स्वस्थ सामाजिक मानको को भूलकर अपनी जाति के प्रति अंधभक्ति प्रदर्शित करते हैं। राजनीतिज्ञ जातिवाद (Politician Casteism) की भावना का, राष्ट्रीय हितों को दांव पर लगाते हुए अपने लाभ-हेतु पक्षपोषण करते हैं।