भारत में जजमानी प्रणाली
जजमानी प्रणाली हिन्दू जातीय प्रणाली का सामाजिक-आर्थिक आधार रहा है और भारत में कृषिक सामाजिक संरचना का अंतर्निहित हिस्सा है। जजमानी प्रणाली नामक पद विलियम वाइजर की देन है।
जजमानी प्रणाली के अंतर्गत गाँव में हरेक जातीय समूह को अन्य जातियों के परिवारों को कुछ मानकीकृत सेवाएँ (Standardised Services) देनी होती हैं। आमतौर पर इस मुहावरे का प्रयोग भू-स्वामी उच्च जातियों और भूमिहीन सेवक जातियों के बीच माल और सेवाओं के लेनदेन के सूचक के रूप में किया जाता है। ये जातियाँ हमेशा ही एक व्यवसायिक परंपरा निभाने के कारण व्यवसायिक रूप से निपुण हो जाती हैं, इसलिए इन्हें कारीगर जातियों के रूप में भी जाना जाता है। लुहार, सुनार, बुनकर, तेली, मोची, नाई, धोबी, गायक जैसी कारीगर जातियाँ और व्यवसायिक निपुणता वाले अन्य कई समूह व खेतिहर मजदूरी करने वाले पारंपरिक भूमिहीन अछूत जातियों के लोग ‘सेवक जातियों’ में आते हैं। इन्हें कमीन, प्रजन और देश के विभिन्न हिस्सों में कई अन्य नामों से पुकारा जाता है। भू-स्वामी उच्च जातियों को मोटे तौर पर जजमान (संरक्षक) कहा जाता है। पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाले ये सेवा आधारित संबंध जजमानी-प्र – प्रजन संबंध कहलाते हैं ।
जजमानी प्रथा बुनियादी तौर पर उत्पादन माल एवं सेवाओं के वितरण की कृषि आधारित प्रणाली है। जजमानी संबंधों के माध्यम से यह कारीगर जातियाँ भू-स्वामी प्रभुतासंपन्न जातियों के संपर्क में आती हैं। भू-स्वामी जातियाँ अपनी कारीगर अथवा सेवक जातियों के प्रति उच्चता एवं ‘पालनहार’ का सा रूख अपनाती हैं।
इस प्रणाली के अंतर्गत गाँव में रहने वाले हरेक जाति समूह को अन्य जातियों के परिवारों को एक निश्चित मानदंड के अनुसार सेवाएँ प्रदान करनी होती है। यह प्रणाली वितरणपरक व्यवस्था हैं जिसके अंतर्गत उच्च जातियों के भू-स्वामी परिवार जिन्हें जजमान कहा जाता है, उन्हें विभिन्न निम्न जातियों द्वारा सेवाएँ एवं उत्पाद उपलब्ध कराए जाते हैं। इस प्रकार यह प्रणाली भारतीय कृषि आधारित गाँव में श्रम के कार्यानुसार विभाजन को स्पष्ट करती है जिसमें भूमिका संबंधों और भुगतान की श्रृंखला बनाती है। यह व्यवस्था परंपरा के अनुसार ही चलती रही है और आपसी विश्वास तथा एक-दूसरे पर निर्भरता इसका सातत्य बनाए हुए है। इसलिए इसे भारतीय कृषिक व्यवस्था में जाति पर आधारित कार्यात्मक अंतरनिर्भरता (Functional Inter-dependence) की योजना भी कहा जा सकता है।
जजमानी रिश्ते अटूट होते हैं। जजमानी अधिकार को पिता से पुत्र के हाथ में जायदाद के हस्तांतरण का एक प्रकार भी माना जा सकता है। यह संबंध एक प्रकार से स्थानीय परंपराओं से ही अधिकतर संचालित होते हैं। कुल मिलाकर जजमानी प्रणाली में आधिपत्य, शोषण एवं संघर्ष प्रमुख तौर पर निहित हैं। भू-स्वामी प्रभुतासंपन्न संरक्षकों तथा उनकी सेवा करने वाले गरीब कारीगरों और भूमिहीन मजदूरों के बीच सत्ता के प्रयोग में भारी खाई विद्यमान रही हैं।
जजमानी प्रणाली की एक और महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि जजमानी संबंधों का संचालन हालांकि ग्रामीण स्तर पर ही होता है फिर भी अक्सर वे किसी एक गाँव तक ही सीमित नहीं रहते क्योंकि सभी गाँवों में सभी कारीगर जातियाँ नहीं होती इसलिए कारीगर जातियों की सेवाएँ अन्य गाँवों से भी अक्सर उधार ली जाती है। इसके अलावा सुनारों, लुहारों और बढ़ई जैसी कारीगर जातियों के लिए एक ही गाँव से पूरे साल रोजगार योग्य काम जुटाना संभव नहीं है। इसलिए ऐसी जातियाँ एक सीमित क्षेत्र में कई गाँवों की आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। उपसंहार के रूप में यह कहा जा सकता है कि जजमानी प्रथा युगों पुरानी सामाजिक संस्था है जो भारतीय गांवों में प्रचलित अंतरजातीय तथा अंतरपारिवारिक सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक और धार्मिक संबंधों को परिलक्षित करती है। यह भारत में कृषि के सामाजिक संगठन के सबसे महत्वपूर्ण अवयवों में शामिल है।