November 15, 2024
पंचायतों की कमियां

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पंचायतों की कमियां

73वें एवं 74वें संविधान संशोधन का केवल शब्दों के तहत् पालन किया गया, उनकी भावनाओं का नहीं । अधिकांश राज्यों के पंचायत अधिनियमों में नौकरशाहों को परोक्ष रूप में निर्वाचित निकायों पर नियंत्रण रखने का अधिकार दे दिया गया है और पंचायतों को प्राप्त 29 विषय का हस्तांतरण वर्तमान में भी प्रभावी रूप में नहीं हो पा रहा है। यद्यपि सभी राज्यों में संविधान संशोधनों के अनुरुप अधिनियम पारित कर दिए हैं, परंतु उनमें से अधिकांश पंचायतों के प्रतिदिन के क्रिया-कलापों के नियम या उपनियम नहीं बनाए गए हैं, जिसमें विभिन्न प्रशासनिक विभाग पहले भांति ही कार्य कर रहे हैं, जैसा कि नई पंचायतों के गठन के पहले कार्य करते थे। अधिकांश राज्यों में प्रशासनिक एवं तकनीकी कर्मचारी राज्यों के विभागीय प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर रहे हैं, लेकिन इन कर्मचारियों पर पंचायतों का कोई नियंत्रण ही नहीं है, जिससे पंचायतों के कार्य भी प्रभावित होते हैं। अधिकांश राज्यों ने ग्राम पंचायत स्तर पर एक ग्राम विकास अधिकारी दो या तीन ग्राम पंचायतों का कार्यभार संभाल रहे हैं और सरपंच कई बार पंचायतों की बैठक को इसलिए स्थगित कर देते हैं कि पंचायत सचिव उस बैठक में उपस्थित ही नहीं हो पाते।

ग्राम पंचायतों का पांच वर्षों का कार्यकाल समाप्त होने पर उनके चुनाव कराने की संवैधानिक व्यवस्था को गंभीरता से नहीं लिया जाता। कई राज्यों यह व्यवस्था है कि राजनीतिक दल खण्ड एवं जिला पंचायतों के चुनाव में भागीदारी करते हैं, लेकिन ग्राम पंचायतों में उन्हें भागीदारी का अधिकार नहीं दिया गया। यह उल्लेखनीय है कि कोई भी सत्तारुढ़ राजनीतिक दल विधान सभा के चुनाव के पहले पंचायत चुनाव कराने के इच्छुक नहीं होते, क्योंकि उन्हें अपनी राजनीतिक साख खोने का भय होता है। इसलिए पंचायत अधिनियम में कमी निकालकर चुनाव टाल दिया जाता है और कभी-कभी प्रतिकूल मौसम या लोक व्यवस्था के आधार पर भी पंचायतों का चुनाव टाल दिया जाता है। व्यावहारिक रुप में राज्य चुनाव आयोग भी स्वतंत्र एवं संवैधानिक संस्थाओं की भांति कार्य नहीं करते व राज्य सरकार के दबाव के सामने झुक जाते हैं।

केंद्र सरकार मंत्रालय एवं राज्य सरकारों के विभाग जिनका संबंध स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला एवं बाल विकास जैसे विभिन्न ग्रामीण विकास कार्यक्रमों एवं योजनाओं से हैं, जो लगातार ऐसे ढांचे खड़े कर रहे हैं, जो पंचायतों के समानांतर कार्य करते हैं और इनको विभिन्न मंत्रालयों एवं विभागों द्वारा भारी वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है। केंद्र सरकार के अनेक मंत्रालय एवं राज्य सरकार के विभाग, केंद्र एवं राज्य द्वारा प्रायोजित अनेक कार्यक्रमों का संचालन एवं क्रियान्वयन करते हैं, जिनमें से कुछ कार्यक्रमों के निम्न हैं यह कृषि मंत्रालय एवं ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा संचालित किया जाता है तथा इन कार्यक्रमों को लागू करने के लिए इन एजेंसियों को पैसा दिया जाता है, जिसमें पंचायतों की भूमिका नहीं होती। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा राज्यों को प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, तकनीकी प्रशिक्षण, व्यावसायिक शिक्षा, प्रौढ़ एवं अनौपचारिक शिक्षा का दायित्व सौंपा गया है, जिसमें पंचायतों को प्राप्त विषयों में से प्राथमिक शिक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण है, जबकि जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत् विश्व बैंक के द्वारा कोष (सहायता) प्रदान किया जा रहा है, जिस पर पंचायतों का नियंत्रण नहीं है।

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अधीन संयुक्त वन प्रबंध समितियां कार्य कर रहीं हैं। वर्ष 1999 में मध्य प्रदेश सरकार ने पंचायती राज के समानांतर जिला सरकार योजना को आरंभ किया, जिसमें प्रशासनिक तौर पर राज्य सरकार के एक मंत्री, जिलाधिकारी, विधायक, क्षेत्र के सांसद एवं जिला परिषद् के प्रतिनिधि शामिल थे। जिला पंचायत को विस्तृत अधिकार प्रदान करते हुए जिलाधिकारी को इसका मुख्य कार्यकारी बनाया गया, जिससे तार्किक रुप में पंचायतों का अवमूल्यन हुआ। ठीक इसी प्रकार आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू ने ‘जन्म भूमि कार्यक्रम’ आरंभ किया, जिसमें ग्रामीण पेय जल योजना, जवाहर रोजगार योजना इत्यादि केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए आवंटित राशि का ‘जन्म भूमि कार्यक्रम’ में उपयोग किया गया। अतः पंचायती राज संशोधन के बाद भी केरल, मध्य प्रदेश एवं कर्नाटक जैसे राज्यों ने ‘जिला ग्रामीण विकास एजेंसी’ (DRDA) को अत्यधिक शक्तिशाली बनाया।

प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव द्वारा ‘सांसद स्थानीय विकास योजना (वर्ष-1993) ‘ का आरंभ किया गया, जिसके अंतर्गत् प्रत्येक सांसद को अपने क्षेत्र के विकास के लिए 2 करोड़ रुपये की राशि वार्षिक रुप में प्रदान की गई थी, वर्तमान में 5 करोड़ हो गई है तथा सांसद स्थानीय विकास योजना के अंतर्गत् विकास के लिए 23 विषयों की सूची बनाई गई, जिसमें स्कूल के भवन, ग्रामीण सड़कें, पुलिया, वृद्धों के लिए आश्रय, ग्राम पंचायतों के लिए खेलकूद एवं नलकूप निर्माण इत्यादि विषयों को सम्मिलित किया गया, लेकिन केंद्र सरकार समय-समय पर इस सूची में संशोधन कर सकती है। इस योजना के लिए समूची राशि ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा सीधे जिलाधिकारियों के खातों में भेजी जाती हैं। इसी कारण जॉर्ज मैथ्यू के अनुसार, ‘सांसद स्थानीय विकास कोष की संकल्पना पंचायती राज व्यवस्था की भावना पर mo कुठाराघात या प्रतिकूल है, क्योंकि इस योजना में जिन 23 विषयों को सम्मिलित किया गया है, वे विषय 11वीं अनुसूची में वर्णित 29 विषयों के लगभग समान हैं।’ 74वें संविधान संशोधन के अनुसार, प्रत्येक जनपद में एक जिला नियोजन समिति का गठन अनिवार्य है, परंतु जब सांसदों एवं विधायकों को अपना अलग कोष प्रदान किए जाने के बाद इन समितियों की भूमिका भी प्रभावी नहीं रह गई हैं तथा सरकारी अधिकारी भी यह नहीं चाहते कि पंचायती राज के प्रतिनिधि उन पर निगरानी एवं नियंत्रण रखें। इसलिए ये पंचायतों के साथ असहयोगपूर्ण व्यवहार करते हैं। उदाहरण के लिए, प्राथमिक स्कूल शिक्षकों के अखिल भारतीय संघ ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके अंतर्गत् इन्होंने पंचायतों के अधीन कार्य करने पर आपत्ति उठाई। लेकिन दूसरी ओर, अखिल भारतीय सेवक एवं राज्य सरकार के अधिकारी भी पंचायती राज के प्रति प्रतिबद्ध नहीं हैं। 

पंचायतों के महत्व एवं इनकी शक्तियों को मान्यता देने में राज्य स्तर के नेता भी अत्यधिक हिचकिचाते हैं, क्योंकि विधायक एवं सांसद पंचायतों के शक्तिशाली होने से चिंतित होते हैं, क्योंकि वे जिन अधिकारों का उपभोग करते आए हैं, पंचायती राज के शक्तिशाली होने से उनमें कटौती होगी तथा इनके लिए भविष्य में चुनौती खड़ी होगी, क्योंकि स्थानीय नेतृत्व द्वारा इनके नेतृत्व का विकल्प रखा जा सकता है। इसलिए सांसद एवं विधायक केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित अनेक योजनाएं जो ‘जिला ग्रामीण विकास एजेंसी’ (DRDA) द्वारा संचालित होती हैं, उन पर नियंत्रण रखना चाहते हैं।

देश के अनेक भागों में राजनीतिक चेतना का निम्न स्तर, सामाजिक पिछड़ापन, निरक्षरता एवं जातीय संघर्ष ऐसे कारक हैं, जो पंचायती राज के बेहतर क्रियान्वयन में बाधा उत्पन्न करते हैं तथा समाज में अभी भी सामंती मूल्य व विचार सुदृढ़ हैं, जिसकी पंचायतें सूक्ष्म भाग हैं। दुर्भाग्यवश सामाजिक परिवर्तन का निर्णायक मुद्दा न तो सरकार की सूची में है, न ही राजनीतिक दलों की और न ही इसके लिए नागरिक संगठन सक्रिय हैं। अतः भूमि सुधार का अभाव, स्त्रियों की साक्षरता का निम्न स्तर, पितृ-सत्तात्मक सत्ता, गांव में कमजोर वर्गों के विरुद्ध हो जाते हैं। इसलिए बहुसंख्यक समाज के लोग अभी भी विषमतामूलक सामाजिक ढांचे में जीवन यापन कर रहे हैं और वे पंचायतों द्वारा उपलब्ध कराए जा रहे लाभों को भी प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं, क्योंकि पंचायत सदस्य अभी भी अशिक्षित एवं निरक्षर हैं तथा ग्रामीण विकास के तकनीकी पहलुओं को समझने में समस्या होती है, इसलिए नौकरशाही अभी भी प्रभावी है। यद्यपि यह उल्लेखनीय है कि कुछ गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ मिलकर ग्रामीण विकास के राष्ट्रीय संस्थान, हैदराबाद द्वारा पंचायती राज के सदस्यों को प्रशिक्षण देने का कार्य किया गया है।

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