न्यायिक सक्रियता
न्यायपालिका द्वारा कार्यपालिका व विधायिका के कार्यों में हस्तक्षेप किया जाए, तो इसे न्यायिक सक्रियता कहा जाता है। न्यायपालिका का मूल कार्य सरकार के विभिन्न अंगों के मध्य विद्यमान विवादों का समाधान करना तथा इसके द्वारा मूल अधिकारों की रक्षा की जाती है और संविधान की व्याख्या एवं संरक्षण न्यायपालिका के मूल कार्य हैं। परंपरागत् रूप में न्यायपालिका के द्वारा मूल अधिकारों की रक्षा के लिए विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का प्रयोग किया गया, जबकि मेनका गांधी वाद (1976) में न्यायपालिका ने विधि की उचित प्रक्रिया को स्वीकार कर लिया, जो न्यायपालिका के कार्य प्रणाली में बड़े परिवर्तन का उदाहरण है। आरंभिक रूप में न्यायपालिका के द्वारा मूल अधिकारों की संकीर्ण व्याख्या की गई, परंतु वर्तमान में मूल अधिकारों की उदारवादी व्याख्या की जा रही है और व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं जीवन के अधिकार को एक-दूसरे का पूरक माना गया है तथा जीवन के अधिकार में आजीविका शिक्षा तथा गोपनीयता जैसे अधिकार भी शामिल कर लिए गए हैं। ,
आरंभ में संसद के द्वारा सामाजिक न्याय के आदर्शों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया गया, जिसके लिए संसद ने संविधान में अनेक संशोधन किए तथा न्यायपालिका के द्वारा इन संशोधनों का सम्मान किया गया एवं इनका न्यायिक परीक्षण नहीं किया गया। परंतु वर्ष- 1973 में केशवानंद भारती वाद में उच्चतम न्यायलय के द्वारा आधारभूत ढांचे का विचार प्रतिपादित किया गया, जिससे न्यायपालिका ने संसद के संविधान संशोधन की शक्ति को सीमित कर दिया और कहा कि संसद मूलभूत ढांचे का संशोधन नहीं कर सकती तथा मूलभूत ढांचे का निर्धारण न्यायपालिका के द्वारा किया जाएगा। संविधान लागू होने के आरंभिक वर्षों में राष्ट्रपति के द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई, परंतु गठबंधन सरकारों के युग में न्यायपालिका ने अपनी शक्तियों में निर्णायक वृद्धि किया। वर्ष-1993 के जजेज वाद में न्यायपालिका ने न्यायाधीशों की नियुक्ति में न्यायपालिका की प्राथमिकता को स्वीकार किया, जिससे भारत में न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति करने लगे। अतः भारत की न्यायपालिका विश्व की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिका बन गई।
वर्ष-1980 के दशक से न्यायपालिका के द्वारा जनहित याचिका का प्रतिपादन किया गया। न्यायपालिका ने नागरिकों के मूल अधिकारों को अत्यधिक महत्व दिया तथा वंचित और गरीब लोगों के मानवाधिकार की रक्षा के लिए सक्रिय प्रयास किया। अतः पुलिस को बर्बरता, अमानवीय यातना, बंदीगृह में मृत्यु और बलात्कार जैसी घटनाओं को रोकने के लिए न्यायालयों ने कड़े निर्देश जारी किए। न्यायपालिका ने पर्यावरण को शुद्ध रखने पर भी बल दिया। 90 के दशक में न्यायिक सक्रियता का विवाद उस समय और प्रभावी हुआ, जब गठबंधन सरकार के युग में मंत्रिमण्डलीय स्तर पर भ्रष्टाचार के मामले प्रकाश में आए। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय देते हुए सी. बी. आई. (C.B.I.) की स्वतंत्रता और स्वायत्तता का समर्थन किया। इसी समय हवाला कांड भी प्रकाश में आया, जिसमें न्यायपालिका ने सरकार को यह निर्देश दिया कि सी. बी. आई. की रिपोर्ट सीधे न्यायपालिका को भेजी जाय। न्यायमूर्ति जे. एस. वर्मा ने यह कहा कि तटस्थता के लिए यह आवश्यक था कि सी. बी. आई. न्यायपालिका को रिपोर्ट करे, प्रधानमंत्री को नहीं । इसका सीधा अभिप्राय हुआ कि सी. बी. आई. को नियंत्रित करने का अधिकार कार्यपालिका के हाथ में नहीं रहा । इन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप कार्यपालिका बनाम् न्यायपालिका की बहस और प्रभावी हुई । लोक सभा स्पीकर पी. ए. संगमा ने कहा कि न्यायपालिका के कार्य खतरनाक हैं, क्योंकि ये विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप करके न्यायाधीश लोकप्रियता प्राप्त करने की कोशिश कर रहे हैं।
इसी दौरान अनेक सामाजिक संगठनों के द्वारा जनहित याचिकाएं (PIL) दायर गयीं, जिसमें बड़े बांधों का मुद्दा, बच्चों और बंधुआ मजदूरों का मामला और एम. सी. मेहता ने पर्यावरण के संरक्षण से संबंधित मामले उठाए। एच. बी. शौरी ने नागरिक समाज के हित में अनेक जनहित याचिका का प्रयोग किया। ताजमहल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 212 उद्योगों को बंद करने का आदेश दिया। वर्ष-1996-97 में उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली से औद्योगिक इकाईयों को बाहर करने का आदेश दिया, क्योंकि ये इकाईयां घनी आबादी में कार्यरत थीं। वर्ष 2000 में उच्चतम न्यायालय ने यमुना को प्रदूषण से बचाने के लिए दिल्ली सरकार को निर्देश दिए। वर्ष 2013 में उच्चतम न्यायालय के द्वारा अनेक महत्वपूर्ण निर्णय दिए गए। लिलि थॉमस वाद में उच्चतम न्यायालय के द्वारा जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा-8 के खण्ड-4 को अवैधानिक करार दिया, जिससे वे सांसद जिन्हें न्यायपालिका के द्वारा 2 वर्ष या इससे ज्यादा की सजा प्राप्त हुई थी, उनकी सदस्यता निरस्त कर दी गई। उच्चतम न्यायालय ने जन चौकीदार वाद में एक महत्वपूर्ण निर्णय देते हुए कहा कि वे उम्मीदवार जो हिरासत में रखे गए हैं, उन्हें मतदान का अधिकार नहीं होगा। यद्यपि संसद के द्वारा विधि का निर्माण करके इस निर्णय को परिवर्तित कर दिया गया। पी. यू. सी. एल. वाद में उच्चतम न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा कि मतदाताओं को चुनाव में भाग ले रहे सभी उम्मीदवारों को अस्वीकृत करने का अधिकार है, जिसे लोकप्रिय रूप में नोटा कहा जाता है। वर्ष 2013 में ही टी. एस. आर. सुब्रमणियम वाद में उच्चतम न्यायालय के द्वारा सिविल सेवा में सुधार के लिए सरकार को निर्देश दिया गया और न्यायपालिका ने कहा कि सिविल सेवकों के कार्यकाल को स्थायी बनाना होगा तथा उनके स्थानांतरण और प्रोन्नति के लिए एक सिविल सेवा बोर्ड के गठन का सुझाव दिया तथा सिविल सेवकों की नियुक्ति को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करने का निर्देश दिया। अतः न्यायपालिका के इस परिवर्तित दृष्टिकोण को आलोचकों ने सक्रियता का नाम दिया।