न्यायपालिका का दृष्टिकोण
न्यायालय केवल विवादों के समाधान की संस्था नहीं है, बल्कि इसका कार्य सामाजिक न्याय का संपादन भी है। न्यायपालिका के अनुसार, संविधान की व्याख्या इसका मूल कार्य है। परंतु संविधान की व्याख्या परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार होनी चाहिए। यह सत्य है कि भारत में संसदीय शासन प्रणाली स्वीकार की गयी है। संविधान निर्माताओं ने संसद को प्राथमिक बनाने का प्रयत्न भी किया है, लेकिन जनप्रतिनिधि के नाम पर भ्रष्टाचार और गैर-संवैधानिक कार्य करने की अनुमति किसी को भी नहीं हो सकती। भारतीय राजनीति में जिस प्रकार अपराधीकरण बढ़ा है। उस परिस्थिति में संसदीय शासन के नाम पर न्यायिक पुनरावलोकन पर प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता। इसलिए यदि न्यायिक सर्वोच्चता की संकल्पना स्वीकार नहीं की जा सकती, तो संसदीय सर्वोच्चता की मान्यता भी स्वीकार करना कठिन है। इसलिए व्यवहार में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और स्वायत्तता आवश्यक है, जबकि जनप्रतिनिधियों को संविधान निर्माताओं के आदेश को ध्यान में रखना होगा।