ज्वार की फसल का आर्थिक महत्त्व, भौगोलिक महत्त्व तथा वानस्पतिक वर्णन कीजिए
विश्व की खाद्यान्न फसलों में ज्वार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसकी खेती मुख्य रूप से दाने व चारे के लिए की जाती है। कम वर्षा वाले क्षेत्रों में पशुओं के लिए की जाती है।
1. आर्थिक महत्त्व:- ज्वार के दानों को आटा बनाकर उसे रोटी की तरह व चावल की भाँति उबालकर तथा मक्का की प्रकार खील बनाकर प्रयोग करते हैं। दुधारु पशुओं सूअरों के लिए यह उत्तम चारे का काम करता है। इसके अलावा इसका दाना मुर्गियों व अन्य पक्षियों को खिलाने के काम आता है। ज्वार का प्रयोग एल्कोहाल, माल्तू व अनेक उद्योगों में किया जाता है।
2.भौगोलिक वितरण:- ज्वार उत्पादन प्रमुख देशों में भारत संयुक्त राज्य अमेरिका मैक्सिको, सूडान व नाईजीरिया आदि है। ज्वार की खेती योग्य सर्वाधिक क्षेत्रफल भारत में है। जबकि उत्पादन संयुक्त राज्य अमेरिका में अधिक है। भारत में महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, तथा कर्नाटक है। उत्तर प्रदेश में ज्वार की खेती सर्वाधिक होती है।
3.वानस्पतिक विवरण:- ज्वार का पौधा वार्षिक होता है। यह ग्रेमिनी कुल का है। इसका पौधा आधा मीटर से 4 मीटर की ऊँचाई का होता है। इसके पौधों की जड़े भूमि की ऊपरी सतह में लगभग 20 सेमी की गहराई तक फैली होती है। परन्तु सूखने की स्थिति में 1.5 मी. चली जाती है। इसका तना ठोस होता है। इसके तने पर 5 से 20 तक पत्तियाँ होती हैं। यह तेजी से बढ़ते हैं।
4.जलवायु:- ज्वार के पौधे स्वभावतः कठोर होते हैं। कठोर होने के कारण ही ये अधिक तापमान एव सूखे को सहन करने की क्षमता रखते हैं। इसका पौधा प्रतिकूल में सुषप्तावस्था में होता है। इसकी खेती 600 मीटर से 1000 मिमी. तक वार्षिक वाले क्षेत्रों में होती है। बीज के अंकुरण के लिए कम से कम 10°C तापमान होना आवश्यक होता है। 20-25°C पर वृद्धि होती है। गर्म जलवायु की आवश्यकता होती है।