जूट की फसल का आर्थिक महत्त्व, भौगोलिक विवरण, वानस्पतिक वितरण तथा जलवायु
जूट भारत की महत्त्वपूर्ण रेशे वाली फसल होती है। कपास के बाद रेशे वाली फसलों में इसका दूसरा स्थान है। कपास मुख्यतः वस्त्र निर्माण तथा कीमती समान की पैकेजिंग में प्रयोग किया जाता है। भारत में इसका प्रयोग समान की पैकिजिंग में ज्यादा किया जाता है। कपास की तरह ही इसके रेशों से विभिन्न उत्पादन के लिए उद्योग धन्धों स्थापित किये गये हैं।
1.आर्थिक महत्त्व:- जूट के रेशे की बीरिया बनायी जाती है। इसका दैनिक के उपयोगी सभी समान खाद उर्वरक सभी प्रकार के समान का भण्डारण व परिवहन में किया जाता है। इसके रेशे का प्रयोग घरों की एवं वाहनों के फर्नीचर के गद्दों व साधारण गद्दों में किया जाता है। इसके रेशे से रस्सियों व चटाइयाँ बनायी जाती है। जिसका उपयोग सभी लोग करते हैं। इसके रेशे से बने समान ले जाने थैले-जैव अपघटन होते हैं। इसके रेशे का प्रयोग उद्योग धन्धों के कच्चे माल के लिए किया जाता है। इसका उपयोग ग्रामीण लोग ईंधन के रूप में किये जाते हैं।
2.भौगोलिक वितरण:- विश्व जूट की खेती करने वाले प्रमुख देशों में भारत, बंग्लादेश, चीन, नेपाल, पाकिस्तान, थाईलैण्ड व इण्डोनेशिया प्रमुख हैं। इन देशों में लगभग 90% जूट पैदा होता है। भारत में लगभग 9 लाख/ हे. क्षेत्रफल पर इसकी खेती की जाती है और इसका उत्पादन लगभग 10 लाख टन है। भारत में जूट की उत्पादकता लगभग 20 लाख कुन्तल/है. है।
3.वानस्पतिक विवरण:- जूट का पौधा वंश व टिलिएसी परिवार के अन्तर्गत आता है। इसका पौधा होता है। पौधा की जड़े भूमि में गहराई तक पायी – जाती है। खेती करने के लिए दो प्रकार की जातियाँ होती हैं। कोकेरिस कैपसूलेरिस तथा कोरकोरस आलिटोरियस।
4.जलवायु:- जूट के पौधे के लिए गर्म तथा नमी युक्त जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती के लिए 25 से 40°C तापमान उपयुक्त रहता है। प्रतिकूल परिस्थिति में यह फसल 45°C तापमान को सहन कर. लेती है। इस फसल की अच्छी वृद्धि के लिए वायुमण्डल में 80% नमी का होना आवश्यक होता है। जूट की खेती के लिए लगभग 1800-MM वर्षा (वार्षिक) वाले क्षेत्र उपयुक्त माने जाते हैं।