छोटे राज्यों का निर्माण के विपक्ष में तर्क
भारत के उत्तरी – पूर्वी भाग में स्थित राज्य अत्यधिक छोटे हैं, परंतु वे भी पिछड़े हैं। केवल छोटे राज्यों के कारण ही आर्थिक विकास नहीं होता, बल्कि आर्थिक विकास के लिए अन्य कारक भी महत्वपूर्ण होते हैं। हरियाणा के विकास का मूल कारण इसकी दिल्ली से निकटता और बेहतर आधारभूत संरचनाएं हैं। इसलिए आकार एवं आर्थिक विकास के मध्य कोई सीधा संबंध निर्मित करना कठिन है।
छोटे राज्यों के निर्माण से राजनीतिक अस्थायित्व में वृद्धि होती है। विधायकों की संख्या कम होने के कारण कुछ विधायकों के दल बदलने से सरकार को गिरने का खतरा होता है जैसे- गोवा, झारखंड एवं मेघालय जैसे छोटे राज्यों में अत्यधिक राजनीतिक अस्थिरता पाई जाती है।
छोटे राज्यों के निर्माण से भारी प्रशासनिक एवं वित्तीय बोझ पड़ता है। राज्य के निर्माण के बाद उनके लिए अलग सचिवालय की स्थापना करनी होगी तथा उच्च न्यायालय का निर्माण भी आवश्यक होगा। वर्तमान उदारीकरण के युग में सरकार के द्वारा राजकोषीय प्रबंधन बेहतर करने का प्रयत्न किया जा रहा है। इसलिए नए राज्यों के निर्माण पर होने वाले प्रशासनिक खर्च के बजाए, सामाजिक एवं आर्थिक विकास पर बल देने की आवश्यकता है।
नए राज्य के निर्माण के बाद दूसरे नए राज्य की मांग आरंभ हो जाती है। इसलिए यह अंतहीन चलने वाली प्रक्रिया है और भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में अनेक राज्यों की मांग हो रही है और नए राज्य भी सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं का समाधान करने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए पंचायती राज को सुदृढ़ करना बेहतर विकल्प है। वर्तमान सूचना क्रांति एवं पंचायती राज के युग में विकास स्थानीय स्तर पर पंचायतों के द्वारा प्रभावी रुप में संभव है।
प्रशासनिक विकेंद्रीकरण के द्वारा लोगों की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। नए राज्य के निर्माण के बाद जल विभाजन के संबंध में विवाद और राजधानी के निर्माण को लेकर भी खींचतान शुरु हो जाती है। भारत में उच्च न्यायालयों की अलग निकाय की स्थापना के द्वारा लोगों को न्याय प्रदान किए जा सकते हैं तथा पारदर्शी प्रशासन के द्वारा लोगों का विकास संभव है।