चना का वानस्पतिक नाम, वर्गीकरण, कुल,
चना (Chickpea)
वानस्पतिक नाम: साइसर इरीटिनम (Cicer Arietinum)
- चने को ‘Gram’ अथवा ‘Bengal Gram’ के नाम से भी जाना जाता हैं |
- कश्मीरी भाषा में चना को मूँग (Moong अथवा Mong) कहा जाता हैं |
- चने की पत्तियों में मौलिक अम्ल (Malic Acid), ओक्जैलिक अम्ल (Oxalic Acid) आदि पाया जाता हैं
- स्क्रबी (दनतक्षय) रोग के उपचार के लिए अंकुरित चना का प्रयोग किया जाता हिं तथा चने की हरी पत्तियों में पाये जाने वाले मौलिक एवं ओक्जैलिक अम्ल आँतों की विकृतियों का उपचार करते हैं
- विश्व में चने के क्षेत्रफल और उत्पादन की दृष्टी से भारत का प्रथम स्थान हैं दूसरा स्थान पाकिस्तान का हैं
- विश्व के कुल चना उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत उत्पादन एशिया महाद्वीप के अन्तर्गत हैं
- प्रमुख चना उत्पादित देशों में, उत्पादकता की दृष्टी से मैक्सिको का प्रथम (1443 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) आस्ट्रेलिया का द्वितीय (1247 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) तथा टर्की का तृतीय (930 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर) स्थान हैं
- भारत में चने की खेती मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महारष्ट्र, राजस्थान तथा बिहार में की जाती हैं | देश के कुल चना क्षेत्रफल का लगभग 90% भाग तथा कुल उत्पादन का लगभग 92% भाग इन्ही प्रदेशों से प्राप्त होता है
- भारत में ससबे अधिक चने का क्षेत्रफल एवं उत्पादन वाला राज्य मध्य प्रदेश हैं |
- भारत में कुल दलहन क्षेत्रफल का 32.5% भाग चना के अन्तर्गत आता हैं
- भारत में कुल दलहन उत्पादन का लगभग 40% भाग चना द्वारा प्राप्त होता है
- उत्तर प्रदेश में उत्पादकता की दृष्टी से मिर्जापुर का स्थान प्रथम (1394 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हैं )
- चना का उत्पति स्थान संभवतः दक्षिणी-पूर्वी टर्की तथा उत्तरी सीरिया के आस-पास के क्षेत्र है जहा से चना भारत, यूरोप, आस्ट्रेलिया आदि देशो में गया
- डी० कैंडोल के मतानुसार चना एक संस्कृति भाषा का नाम हैं इस कारन यह प्रतीत होता हैं की भारतवर्ष चना उगाने वाला पुराना देश हैं
- चने की K468 तथा K 850 किस्मे चन्दशेखर आजाद कृषि विश्वविधालय, कानपूर से विकसित की गई हैं K 468 किस्म सन 1978 में State Variety Release Committee द्वारा निकाली गई हैं
- चना की Pant G114 किस्म सन 1979 में गोविन्द बल्लव पन्त कृषि विश्वविधालय, पंतनगर द्वारा विकसित की गई हैं
- चना की बड़े दाने की देशी किस्में हैं : गौरव, अवरोधी, राधे, पूसा-362, GNG-469, BG-391, GG-2, BGD-72, Phule G5, K-850, Co-3, Co-4.
- चना की बड़े दानें वाली काबुली प्रकार की किस्मे हैं : चमत्कार (BG-1053), पूसा काबुली (BG-1003), स्वेता (ICCV-2), KAK-2.
- H-208 किस्म हरियाणा कृषि विश्वविधालय, हिंसार से निकाली गई हैं
- Pant-10 चने की नयी किस्म हिं जो पंतनगर से विकसित हुई हैं यह उकठा (Wilt) अवरोधी किस्म हैं
- चने की उकठा (Wilt) तथा झुलसा (Blight) रोघी किस्में हैं : BG-244, BG-266, CG-588, GNG-146, ICCC-32, JN 315 अवरोधी, KWR-108 इत्यादि |
- हरे छोले नं०1 (Hare Chhole No. 1), चने की हरे दाने वाली प्रथम किस्म है यह Culinary Purposes के लिए उपयुक्त हैं
- C-214 किस्म उकठाएवं पला के प्रति रोधक हैं यह किस्म पंजाब के लिए उपयुक्त हैं
- चना की BR-65, BR-77, BR-78, ST-4 किस्मे बिहार राज्य के लिए उपयुक्त हैं
- RS-10 and RS-11 किस्मे जयपुर से निकाली गई हैं ये किस्मे राजस्थान के लिए उपयुक्त हैं
- Chaffa महाराष्ट्र एवं गुजरात के लिए उपयुक्त किस्में हैं
- Annegri-1 किस्म का विकास रायचुर (कर्नाटक) द्वारा हुआ हैं यह किस्म 90-100 दिनों में पककर तैयार होती है यह कर्नाटक राज्य के लिए उपयुक्त हैं
- Avarodhi किस्म का विकास सन 1987 चन्द्रशेखर आज़ाद कृषि विश्वविधालय, कानपूर द्वारा किया गया था यह उकठा अवरोधी किस्म हैं
- उदय किस्म सन 1992 में चंद्रशेखर आज़ाद कृषि एवं प्रौधोगिक विश्वविधालय, कानपूर के भरारी केंद्र द्वारा विकसित की गई थी
- सदाबहार हरे बीज वाली किस्म हैं इसका विकास सन 1992 मने चंद्रशेखर आज़ाद कृषि विश्वविधालय द्वारा हुआ था
- प्रगति (K-3256) चने की किस्म का विकास सन 1994 में हुआ था |
- KWR-108 चने की किस्म सन 1996 में निकली गई थी |
- काबुली चने की K-4 किस्म Culinary Purposes and K-5 किस्म Table Purposes के लिए सर्वोतम हैं
- LCC-32 काबुली चने की किस्म हैं
- उज्जैन-21 व उज्जैन-24 मध्य प्रदेश के लिए उपयुक्त हैं
- उज्जैन-21 अगेती किस्म हैं जबकि उज्जैन-24 देर से पकने वाली चने की किस्म हैं
- गोरा हिसारी काबुली चने की किस्म का विकास सन 1988 में हरियाणा में खेती के लिए हुआ था इसका बीज छोटा तथा सफ़ेद रंग का होता हैं एवं उपज 15-16 कुंटल प्रति हेक्टेयर होता हैं |
- चना की ICCC-4 किस्म ICRISAT हैदराबाद द्वारा सन 1983 में H-208 X T-3 के संक्रमण से विकसित की गई थी
- काबुली चना की L-551 किस्म का विकास सन 1999 में लुधियाना द्वारा किया गया था इसकी उपज क्षमता 18-20 कुंतल प्रति हेक्टेयर है|
- चना की सदभावना (WCG-1) किस्म का विकास सन 1998 में मोदीपुरम (मेरठ) द्वारा किया गया था | यह बड़े दाने की काबुली प्रकार के चने की किस्म हैं | यह उत्तर प्रदेश के लिए उपयुक्त किस्म हैं |
- सूर्या (WCG-2) किस्म का विकास सन 1999 में मोदीपुरम (मेरठ) द्वारा उत्तर प्रदेश की खेती के लिए किया गया हैं |
- चने के पौधे की जड़ों में राइजोबियम नामक जीवाणु पाये जाते हैं | जो वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को ग्रहण कर जड़ों में स्थापित करते हैं |
- चने के पौधे में स्व-परागण (Self-Pollination) होता हैं |
- चने की फसल में कीटों द्वारा 5-10% तक पर-परगण (Cross Pollination) भी होता हैं |
- चने के बीज को भण्डारित करने के लिए बीज में 10-12% नमी होना चाहिए |
- चने की विकास किस्म अगेती एवं उकठा अवरोधी हैं|
- चने में बीज का अंकुरण अधोभुमिक (हाइपोजियल) प्रकार का होता हैं|
- चाट एवं छोले के लिए चना की K-4, K-5 एवं L-550 किस्मे सर्वोतम हैं |