November 14, 2024
कृषि वनस्पति विज्ञान Agricultural Botany By Era Of Infology

कृषि वनस्पति विज्ञान Agricultural Botany

Spread the love

कृषि वनस्पति विज्ञान Agricultural Botany

  • वनस्पति विज्ञान (Botany) जीव विज्ञान की वह शाखा हैं जिसके अन्तर्गत पौधों के रूप, आकार, संरचना, इनके अंगों का कार्य तथा प्रजनन का अध्ययन किया जाता हैं |
  • थियोफ्रास्ट्स (307-327 ई० पू० ) को वनस्पति विज्ञान का जनक कहा जाता हैं |
  • जीवाणु विज्ञान का जन्मदाता ‘लुईस पाश्चर’ (Louis Pasteur) को कहा जाता हैं |

वनस्पति विज्ञान की शाखाएँ (Branches of Botany)

  1. शुद्ध वनस्पति विज्ञान (Pure Botany) : इस शाखा में पौधों का प्राकृतिक रूप से अध्ययन किया जाता हैं |
  2. व्यावहारिक वनस्पति विज्ञान (Applied or Economic Botany) : इस शाखा में पौधों का अध्ययन मनुष्य जाति की भलाई तथा उन्नति के लिए करते हैं |

वनस्पति विज्ञान की प्रमुख शाखाएँ

  • आकारिकी (Morphology) : इसमें पौधों की ब्राह्म संरचना तथा आकृति का अध्ययन किया जाता हैं |
  • शारीरिकी (Anatomy) : इसमें केवल नेत्रों द्वारा पौधों के भागों की आन्तरिक संरचना का अध्ययन किया जाता हैं |
  • ऊतकी (Histology) : इसमें पौधों के ऊतकों का अध्ययन किया जाता हैं
  • कोशा-विज्ञान (Catology) : इसमें कोशिकाओं और उनके अन्दर पाये जाने वाले भंगों का अध्ययन किया जाता हैं |
  • पादप शरीर-क्रिया विज्ञान (Plant Physiology) : इसमें पौधें में होने वाली क्रियाओं का अध्ययन किया जता हैं |
  • वर्गिकी (Taxonomy) : इसमें पौधों के वर्गीकरण का अध्ययन किया जाता हैं |
  • पारिस्थितिकी (Ecology) : इसमें पौधों तथा उनके वातावरण का अध्ययन किया जाता हैं |
  • पादप-रोग विज्ञान (Plant Pathology) : इसमें फसलों के उगाने से सम्बन्धित अध्ययन किया जाता हैं |
  • उधान विज्ञान (Horticulture) : इसमें पौधों के संकरण की विधि का अध्ययन किया जाता हैं |
  • पादप प्रजनन (Plant Breeding) : इसमें पौधों के संकरण की विधि का अध्ययन करते हैं |
  • मृदा विज्ञान (Pedology) : इसमें मृदा का निर्माण, प्रकार आदि का अध्ययन किया जाता हैं |
  • वन विज्ञान या फारेस्ट्री (Forestry or Silviculture) : इसमें वनों से सम्बन्धित अध्ययन करते हैं |
  • शैवाल विज्ञान (Phycology) : इसमें शैवालों (Algae) का अध्ययन किया जाता हैं |
  • कवक विज्ञान (Mycology) : इसमें कवकों (Fungi) का अध्ययन किया जाता हैं |
  • जीवाणु विज्ञान (Bacteriology) : इसमें जीवाणुओं (Bacteria) का अध्ययन किया जाता हैं |
  • विषाणु विज्ञान (Virology) : विषाणुओं (Virus) का अध्ययन करते हैं |
  • ब्रयोलोजी (Bryology) : इसमें ब्रयोफाइटा का अध्ययन किया जाता हैं |
  • पोलेनोलोजी (Polenology) : इसमें परागकणों का अध्ययन किया जाता हैं |
  • यूकेलिप्टस सबसे लम्बा एन्जियोस्पर्मिक पौधा हैं |
  • ‘लयुवेनहक़’ को जीवाणु विज्ञान का पिता कहते हैं |
  • जीवाणु एककोशिकीय सुक्ष्म प्रोकैरियोटिक होते हैं | इसमें केन्द्रक तथा लवक नहीं पाया जाता हैं |
  • पौधों का नामकरण द्विनाम पद्धति के अनुसार किया जाता है, जिसके जन्मदाता ‘कार्न वान लिनियस’ हैं |
  • जीवाणु की खोज ल्यू वेनहक़ ने 1683 में की थी |
  • अपुष्पीय पादप को निम्न तीन समूहों में बाँटा गया हैं |
    1. थैलोंफाइटा (Thallophyta)
    2. ब्रयोफाइटा (Bryophyta)
    3. टेरिडोफाइटा (Pteridophyta)
  • शैवाल मिट्टी की उर्वरा-शक्ति बढ़ाने के साथ समुन्द्री क्षेत्र में पोषण करते हैं |

पौधों का वर्गीकरण (Classification of Plants)

इकलर (Eichler, 1839-87) के अनुसार

  • वनस्पति जगत
  1. अपुष्पीय पादप (बीज रहित) (Cryptogames)
    1. निम्न (Lower)
      1. थैलोंफाइटा (Thallophyta)
        1. शैवाल (Algae)
        2. लाइकेन (Lichen)
        3. कवक (Fungi)
        4. जीवाणु (Bacteria)
      2. उच्च (Higher)
        1. ब्रयोफाइटा (Bryophyta)
        2. टेरिडोफाइटा (Pteredophyta)
      3. पुष्पीय पादप (बीज सहित) (Phanerogames)
        1. अनावृत्तबीजी (Gymnosperms)
        2. आवृत्तबीजी (Angiosperms)
          1. एकबीजपत्री (Monocots)
          2. द्विबीजपत्री (Dicots)
आवृतबीजी (Angiosperms) अनावृत्तबीजी (Gymnosperms
1.    इस तरह के पौधों के बीज कवच से ढके रहते हैं | 1.    इनके बीज नगन होते हैं |
2.    इनमें शाखाएँ तथा चौड़ी पत्तियाँ होती हैं | पत्तियों के पृष्ट भाग में काफी मात्रा में स्टोमेटा पाया जाता हैं | 2.    इनकी पत्तियाँ शुच्याकर (Needle Spaed) व चपटी होती हैं  | स्टोमेटा भीतरी भाग में छिपा रहता हैं | वाष्पीकरण रोकने के लिए क्यूटिकल (Cuticle) की दीवार मोटी होती हैं |
3.    इस प्रकार के पौधे में सामान्य रूप से फुल खिलते हैं जिसमें नर और मादा दोनों जनन भाग होते हैं | परागण तथा निषेचन क्रिया द्वारा फल का निर्माण होते हैं | फिर फल के पकने से बीज प्राप्त होता हैं | 3.    इसके नर जननांग काष्टीय होते हैं | नर जननांग तथा मादा जननांग दो अक्ष पर अलग-अलग होते हैं |
4.    उदाहरण : धान, गेहूँ, मटर, सेम आदि | 4.    उदाहरण : साइक, पाइनस आदि |
  • लाल सागर का जल ‘लाल शैवाल’ के कारण लाल दिखाई देता हैं |
  • ‘नीले हरे शैवाल’ जीवाणु की अपेक्षा 10 गुणा अधिक नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं |
  • कवक की कोशिका-भित्ति सेल्युलोज या काइटिन की बनी होती हैं | इस्मने संचित भोजन तेल, वाल्युटिन या गलाइकोजन के रूप में होता हैं |
  • ‘स्पाइरुलिना’ साभर झील में पाया जाने वाला शैवाल हैं, जिसमें 65% प्रोटीन पाया जाता है |
  • थैलोफाइटा में संवहन ऊतक (Vascular Tissues) एवं भ्रूण (Embryo) अनुपस्थित होते हैं |
  • शैवाल में लवक उपस्थित रहता हैं | लवको के आधार पर शैवाल को निम्न वर्गो में बाँटा गया हैं |
    • साइनोफाइटा –           नोस्टक, नीली-हरी शैवाल
    • क्राइसोफाइटा –           पीली-हरी शैवाल
    • फियोफाइटा –           भूरी शैवाल
    • रोडोफाइटा –           लाल शैवाल
    • जेन्थोफाइटा –           पीला शैवाल
    • युग्लीनोफाइटा –           युग्लीना (हरी घास जैसे शैवाल)
    • बेसिलेरियोफाइटा –           डायटम्स
    • क्लोरोफाइटा –           यूलोप्रिक्, स्पाइरोगाइरा
    • पाइपोफाइटा –           जिम्नोडियम (सुनहरी-भूरी शैवाल)
  • कवक का आर्थिक महत्व हैं :
    • भोजन के रूप में –           छत्रक गुच्छी
    • पनीर उधोग में –           पेनिसिलियम, एस्पर्जीलस
    • एल्कोहल उधोग में –           यीस्ट
    • डबलरोटी में –           सेकेरोमासीज सेरविसी
  • कवको से प्रतिजैविक (Antibiotics) पदार्थो का निर्माण किया जाता है |
  • लाइकेन के थैलस का मुख्य भाग कवक एवं अन्दर का भाग शैवाल का होता हैं |
  • ब्रयोफाइटस उभयचर प्रकृति के होते हैं | ये स्थल पर विकसित होते हैं लेकिन इनके लैंगिक जनन के लिए जल अति आवशयक हैं |
  • तेरिडोफाइटा स्थलीय होते हैं इनमें बीज व पुष्प नहीं बनता, किन्तु संवहन ऊतक पाए जातें हैं |
  • मोस (Moss) का प्रयोग एन्टीसेप्टिक के रूप में किया जाता हैं |
  • साइकसको ‘जीवित जीवाश्म’ भी कहा जाता है |
  • तारपीन का तेल, रेजिन, खाद बीज आदि ब्र्योफीटिकज पौधे से प्राप्त होते हैं |

कुछ उपयोगी शैवाल

शैवाल का नाम श्रावित पदार्थ
लैमीनेरिया आयोडीन
लाल शैवाल अगार-अगार
भूरा शैवाल एल्जीनिक एसिड
नीली-हरी शैवाल मृदा को उर्वरक बनाना
बल्वा पारोफाइरा भोज्य पदार्थ
क्लोरेला भोज्य पदार्थ
  • लुईस पाश्चर (1812-1892) ने ‘रेवीज का टीका’ एवं ‘दूध के पश्चुराइजेशन’ की खोज की |
  • डब्यू० एम० विजरनिक (1851-1831) ने जीवाणुओं द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण को बताया |
  • जीवाणु भूमि की उर्वरता बढाते हैं | राइजोबियम नामक जीवाणु दलहनी फसलों की जड़ों में पाया जाता हैं यह वायुमण्डल से नाइट्रोजन लेकर नाइट्रेट के रूप में बदलते हैं, जिससे पौधे को नाइट्रोजन प्राप्त होता हैं |
  • दूध से दही का बनना जीवाणु ‘लैक्टोवैसिलस’ के द्वारा होता हैं |
  • वाइरस की खोज का श्रेय ‘इबानोवास्की’ को हैं |
  • रासायनिक रूप से वायरस प्रोटीन एवं डी० एन० ए० अथवा आर० एन० ए० का बना होता हैं |
  • लुईस पाश्चर एवं विजरनिक ने वायरस के जीवित तरल संक्रामक का नाम दिया |
  • संरचना के आधार पर वायरस को दो वर्गों में विभाजित किया गया हैं |
    • आर० एन० ए० वायरस या पादप वायरस
    • डी० एन० ए० वायरस या जन्तु वायरस
  • पौधे के विषाणु जनित प्रमुख रोग हैं
    • टोबैको मोजैक वायरस – तम्बाकू की पत्तियों पर
    • बंटी टॉप ऑफ़- बनाना वायरस केले में
    • आलू की पत्तियों पर चितकबरापन- पोटैटो वायरस |
  • वनस्पति जगत में पुष्पीय पादपों की उत्पति बीजों द्वारा होती हैं | पुष्पीय पादपो के शरीर को मुख्यतः पांच भागों- जड़, तना, पत्ती, फुल और फल में विभक्त किया गया हैं |
  • सेम का बीज गुर्दे का आकार का होता हैं |
  • अक्षका वह भाग जो बीजपत्रों के ठीक निचे को होता हैं ‘हाइपोकोटाइल’ तथा बीजपत्रों के ठीक ऊपर के भाग को ‘इपीकोटाइल’ कहते हैं |
  • सेब के पौधे में भ्रूण रहित बीज बनता हैं |
  • अंडी एक भ्रूणपोषी (Endospermic) बीज हैं |
  • गेंहूँ एवं धान में अधोभुमिकप्रकार का अंकुरण होता हैं |
  • द्विबीजपत्री पौधों का मुख्य लक्षन उनका रेशेदार मूल-तंत्र हैं |
  • चना, मटर, मक्का, मूंगफली एवं आम में ‘हाइपोजियल’ प्रकार का अंकुरण होता हैं |
  • अंडी, चना एवं सेम ‘द्विबीजपत्री’ बीज हैं |
  • मक्का, गेंहूँ एवं ज्वार ‘एकबीजपत्री’ बीज हैं |
  • सूरजमुखी, सरसों, जुट आदि ‘एकवर्षीय’ पौधे हैं |
  • पातगोभी, गाजर, चुकन्दर इत्यादि ‘द्विवर्षीय’ पौधे हैं |
  • अदरक, केला, एवं केली ‘बहुवर्षीय’ पौधे हैं |
  • जड़ (Root), पौधे के अक्ष का अवरोही भाग हैं |
  • स्तम्भ (Stem), पौधे के अक्षका आरोही भाग हैं |
  • जड़ के सिरे पर एक टोपी पाई जाती हैं, जिसे मूल-गोप (Root Cap) कहते हैं |
  • जड़ में पर्ण हरित (Chlorophyll) नहीं होता हैं |
क्रेप्तोगेम्स (अपुष्पीय पादप) फेनेरोगेम्स (पुष्पीय पादप)
1.    ये पुष्पहीन तथा बीजरहित पौधे होते हैं तथा निम्न श्रेणी के पौधे माने जाते हैं | 1.    इनमे पुष्प व बीज दोनों ही उत्पन्न होते हैं तथा ये उच्च श्रेणी के पौधे माने जाते हैं |
2.    इनमे जनन बीजनुओं (sPORES) के द्वारा होता हैं | 2.    इनमें जनन बीजों (Seeds) के द्वारा होता हैं |

 

  • पौधे में निषेचन ‘बीजांड’ में होता हैं |
  • गुड़हल का पौधा ‘झाड़ी’ प्रकार का हैं |
  • चीड़, अशोक एवं देवदार ‘बहिवेधी’ वृक्ष हैं |
  • आम, नीम एवं बरगद ‘प्रस्वेधी’ वृक्ष हैं |
  • नरकुल, बांस एवं गन्ना ‘सन्धि-स्तम्भ’ प्रकार के वृक्ष हैं |
  • तने का रूपान्तरण वायवीय, अर्द्धवायवीय एवं भूमिगत प्रकार का होता हैं |

जड़ो के रूपान्तरण

जड़ो के प्रकार उदाहरण
तर्करूप जड़े मुली
कुम्भीरूप जड़े शलजम, चुकन्दर
शंकुरूप जड़े गाजर
कन्दिलजड़े शकरकन्द, गुलबांस
गांठदार जड़े हल्दी
पुलकित जड़ें डहेलिया, सतावर
हस्ताकर जड़ें आर्किड
मालाकार जड़ें पोई, जंगली अंगूर
वलयित जड़ें इपीकाक
नोट : ये सभी भोज्य पदार्थ जमा करने वाली जड़ें हैं |

 

जोड़ों के प्रकार उदाहरण
स्तम्भ जड़ें बरगद, पाकड़
अवस्तम्भ जड़ें मक्का, ज्वार, गन्ना
आरोही जड़ें पान, पोथोस
वप्र अथवा पुश्ता जड़ें पीपल, सेमल, बरगद
प्लवन जड़ें जुसिया
श्वसन जड़ें सोनेरेशिया, राइजोफोरा
चूषक जड़ें चन्दन, अमरबेल
स्वंगिकारी जड़ें सिंघाड़ा, गिलोय
जनन अथवा पत्र जड़ें बिगोनिया, अजूवा
वायवीय जड़ें आर्किड
ग्रन्थिलजड़ें चना, मटर

 

  • विसर्पी (Creepers) पौधे हैं : दुबघास, पोदीना, खट्टी बूटी, स्ट्रोबेरी आदि |
  • ट्रेलर (Tralor) पौधे हैं : कुलफा, पोई |
  • बल्लरी (Twiners) पौधें हैं : सेम, हिरनखुरी, रेलवे क्रीपर आदि |
  • आरोही लताएँ (Climbers) हैं : पान, टेकोमा, बोगेनविलिया आदि |
  • अमरबेल ‘पूर्णतना-परजीवी’पौधा हैं |
  • तुलसी का तना ‘कोणदार’ होता हैं |
  • अमरबेल, ओरोबैंकी तथा बैलेनोफोरा ‘परजीवी’ पौधे हैं |
  • मशरूम एवं आर्किड्स ‘मृतजीवी’ पौधे हैं |
  • सबसे बड़ी पत्ती वाला पौधा ‘विक्टोरिया रजिया’ हैं | जो भारत के बंगाल राज्य में पाया जाने वाला जलीय पौधा हैं |
  • पत्तियाँ प्रायः दो प्रकार के होते हैं –
    • साधारण पत्ती : जैसे- आम, जामुन, पीपल, गेंहूँ, मक्का, आदि की पत्तियाँ हैं |
    • संयुक्त पत्ती : जैसे- नीम, चना, अरहर, मटर, इमली, आदि की पत्तियाँ |
  • चाँदनी, करोंदा एवं गुलाबांस में ‘द्विशाखी-ससीमाक्षी शाखा-विन्यास’ पाया जाता हैं |
  • बेर में शुलमय प्रकार के अनुपर्ण पाये जाते हैं |
  • मुली, सरसों तथा अशोक में ‘असीमाक्षी शाखा विन्यास’ पाया जाता हैं |
  • गेंहूँ, मक्का एवं गन्ना की पत्तियों की आकृति ‘रेखाकार’ होती हैं |
  • बादाम की पत्तियों की आकृति ‘अंडाकार’ होती हैं |
  • सरसों की पत्तियाँ ‘वीणाकार’ आकृति की होती हैं |
  • ‘जालिकारूपी शिरा-विन्यास’ द्विबीजपत्री पौधों में पाया जाता हैं |
  • ‘पेप्सिन-हाइड्रोक्लोरिक अम्ल’ नामक एन्जाइम किटभक्षी पौधे से निकलता हैं |
  • शाखा अथवा स्तम्भ पर पत्तियों के विभिन्न प्रकार से लगे रहने के ढंग को ‘पर्ण विन्यास’ कहते हैं |
  • पर्नाभ वृन्, पर्ण का रुपान्तरित रूप हैं |
  • पत्र-फलक में शिराओं, उपशिराओं के फैलने के ढंग को ‘शिरा-विन्यास’ (Venation) कहते हैं |

तने के रुपान्तराण

वायवीय रूपान्तरण उदाहरण
पर्णप्रतान (Tendril) अंगूर |
कंटक (Thorn) बेल, नीबू, अनार, आदि |
फाइलोक्लेड (Phylloclade) नागफनी, कोकलोब, झाऊ, रसकस, आदि |
अर्द्धवायवीय रुपान्तरण उदाहरण
भूस्तारी (Runner) दुबघास, खट्टी-बूटी तथा ब्राही आदि |
प्ररोहक (Stolon) अरवी, झूमकोलता |
भूस्तारीका (Offset) जलकुम्भी, समुन्द्र सोख |
अंतःभूस्तारी (Sucker) गुलदावदी, पोदीना |
भूमिगत रुपान्तरण उदाहरण
प्रकन्द (Rhizome) हल्दी, अदरख, केला, केली, फर्न, कलम आदि |
तनाकन्द (Tuber) आलू, हाथी-चोक |
शल्ककन्द (Scanly Bulb) प्याज, लहसुन, लिली |
धनकन्द (Corm) कचालू, केसर |

पत्तियों के रुपान्तरण

पत्ती के प्रकार उदाहरण
पर्ण प्रतान (Leaf Tendril) मटर, जंगली मटर
पर्ण शूल (Leaf Spines) बारबेरी, खजूर |
शल्कपत्र (Scale Leaves) पीपल, बरगद |
पर्नाभ-वृन्त (Phyllode) आस्ट्रेलियन बबूल |
पर्ण-घट (Leaf Pitcher) नेपेन्थीज, सारसीनिया तथा डिसकीडिया आदि |
पर्ण-थैली (Leaf Blader) युट्रिकुलेरिया |
  • नारियल के तने में शाखाएँ नहीं होती हैं |
  • प्याज के बीज में भोजन ‘सेल्युलोज’ के रूप में एकत्रित होता हैं |
  • क्लोरोफिल का रासायनिक नाम ‘मैगनीशियम डाइ-हाइड्रोपोरफाइरिन’ हैं |
  • चने की पत्ती में ‘मैलिक अम्ल’ पाया जाता हैं |
  • सिनकोना के पेड़ से ‘कुनैन’ प्राप्त किया जाता हैं |
  • पुष्पों में पुंकेसर और अंड़प होते हैं, जिनके कारण बीज बनता हैं और पौधों की प्रजनन क्रिया निरन्तर कायम रहती हैं |
  • प्ररोह का अक्षजिस पर पुष्प के भाग लगे रहते है, ‘पुष्पासन’ (Thalamus) कहलाता हैं |
  • पुष्प के चार भाग ब्रहादलपुंज, दलपुंज, पुमंग, (नर जनन अंग) एवं जयांग (मादा जनन अंग) होते हैं |
  • कीटभक्षी पौधें कीटों से नत्रजन तत्व की पूर्ति करते हैं |
  • पपीता का पर्णवृन्त खोखला होता हैं |
  • धान में ‘समान्तर शिरा-विन्यास’ पाया जाता हैं |
  • कनेर में ‘चक्राकार पर्ण-विन्यास’ पाया जाता हैं |
  • मुण्डक का उदाहरण ‘सूरजमुखी’ हैं |
  • तुलसी में ‘कूटचक्रक पुष्पक्रम’ पाया जाता हैं |
  • ब्रहादलपुंज, दल, पुंकेसर व अनडप निश्चित चक्रों में ‘पुष्पासन’ पर व्यवस्थित होते हैं |
  • पुष्प का सबसे बाहर वाला चक्र ‘केलिक्स’ (Calyx) होता हैं |
  • पुष्प का नर जनन अंग ‘पुंकेसर’ (Stamens) हैं |
  • सर्वलिंगी पौधा (Polygamus Plant) : जिस पौधे पर तीनों प्रकार के पुष्प उभयलिंगी, एकलिंगी व नपुंसक उपस्थित हों, जैसे- आम का पौधा |
  • उभयलिंगाश्रयीपौधा (Monoecious Plant) : जब एक ही पौधे पर दोनों प्रकार के पुष्प नर व मादा उपस्थित हो, जैसे- मक्का, अरण्ड, लौकी, खीर, तोरई के पौधे |
  • एकलिंगाश्रयी पौधा (Dioecious Plant) : जब दोनों प्रकार के पुष्प नर व मादा अलग-अलग पौघों पर लगे होते हैं, जैसे- शहतूत, अपीता के पौधें |
  • हैपोगेनी पुष्प हैं – सरसों व बेंगन के पुष्प |
  • पेरीगेनी पुष्प हैं – मटर व सेम के पुष्प |
  • इपीगागाइनी पुष्प हैं – अमरुदं व सेब के पुष्प |
  • पूर्ण पुष्प के उदाहरण हैं – सरसों, मटर, सेम, गुडहल आदि |
  • भिण्डी, कपास एवं गुड़हल में ‘व्यवर्तिती पुष्पदल-विन्यास’ पाया जाता हैं |
  • सबसे बड़ा पुष्प ‘रेफ्लेशिया ओरनोल्डाई’ हैं |
  • सबसे छोटा पुष्प ‘बुल्फिया’ हैं |
  • पर-पराग के कर्मक (Agent) हैं- वायु, जल मधु-मक्खियाँ एवं तितलियाँ |
  • ‘स्व-पराग’ उभयलिंगी तथा एकलिंगी दोनों प्रकार के पुष्पों पर होता हैं |
  • पुष्प, पौधे का मुख प्रजनन भाग हैं |
  • स्व-परागण में परागकण एक पुष्प के परागकोष से उसी पुष्प के वतिकग्र पर पहुँच जाते हैं |
  • पर-परागण एक जाती के दो पुष्पों में होता हैं |
  • खुशबूदार पुष्पों में परागण कीड़े द्वारा होता हैं |
  • सबसे बड़ा बीज ‘लोडोसिया’ (Lodoicea) हैं, जो केरल मने पाया जाता हैं |
  • सबसे बड़ा आवृतबीजी वृक्ष ‘यूकेलिप्टस’ हैं |
  • सबसे बड़ा आवृतबीजी पौधा ‘लेमना’ (Lemna) हैं यह भारत में पाया जाता हैं |
  • सिघाड़ा का प्रकीर्णन जल द्वारा होता हैं |
  • फलों तथा बीजो का प्रकीर्णन सबसे अधिक वायु द्वारा होता हैं |
  • नर तथा मादा युग्मक (Gamete) के संयोजन की क्रिया को ‘निषेचन’ (Fertilization) कहते हैं |
  • निषेचन के उरान्त अंडाशय (Ovary) फल में, बीजाण्ड (Ovule) बीज में तथा अण्डकोशिका भ्रूण बनाती हैं |
  • फल के निम्न तीन भाग होते हैं :
  • पर्णहरित (Chlorophyll) प्रायः हरित लावकों (Chloroplast) के भीतर रहता हैं | इसके अणु में कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन एवं मैगनीशियम के परमाणु रहते हैं | पौधों में प्रकाश संशलेषण पर्णहरित की उपस्थिती में होता हैं |
  • पौधों की कोशाभित्ति का निर्माण ‘सेल्युलोज’ से होता हैं |
  • औसत रूप से कोशिका का pH मान 7 माना जाता हैं |
  • जीवद्रव्य में ‘न्यूक्लिक अम्ल’ पाया जाता हैं जो कार्बन, हाइड्रोजन, और फोस्फोरस का बना होता हैं | ये दो प्रकार के होते है 1. RNA और 2. DNA |
  • पादप कोशिका में ‘क्लोरोप्लास’ पाया जाता हैं, जिसमें प्रकाश संशलेषण होता हैं |
  • केन्द्रक की खोज 1833 में ‘रोबर्ट ब्राउन’ की थी |
  • केन्द्रक का सबसे महत्वपूर्ण कार्य जीवों के पैतृक लक्षनों को नयी संतति में भेजना हैं |
  • सबसे बड़ी कोशिका ‘ओस्ट्रिच का अंडा’ जिसका आकार 170 मि० मी० होता हैं |
  • जीवाणुओं तथा कवकों के कोशिका-द्रव्य में लवक (Plastid) नहीं होते हैं |
  • पर्णहरित ‘अ’ का सूत्र C55H72O5N4Mg (नीला, काला) हैं |
  • पर्णहरित ‘ब’ का सूत्र C55H70O6N4Mg (हरा, काला) हैं |
  • पर्णपीतक (Carotin) का सूत्र C40H56 (नारंगी, लाल) हैं |
  • पर्णपीत (Xanthophyll) का सूत्र C40H55O2 (पीला) हैं |
  • तम्बाकू की पत्तियों से प्राप्त होने वाला एल्केलैइड्स ‘निकोटीन हैं |
  • कोकेन एल्केलाइड्स ‘एरिथ्रोक्जाइनॉल’ से प्राप्त होता हैं |
  • कैफिन, कॉफ़ी में पाया जाता हैं |
  • मारफीन, पोस्त में पाया जाता हैं |
  • कत्था, पान एवं चाय का कड़वापन ‘टैनिन’ के कारण होता हैं तथा इससे स्याही बनाई जाती हैं |
  • सबसे अधिक संख्या में गुणसूत्र औफ़ियोग्लोसम नामक फर्न में होता हैं |
  • सबसे छोटी कोशिका ‘माइकोप्लाज्मा गेलिसेप्तिम’ की होती हैं |
  • रबर देने वाला पौधा ‘हेविया ब्रेसिलेंसिस’ हैं |
  • तारपीन का तेल चीड़ के वृक्षों से प्राप्त होता हैं |
  • जीवाणु और नीले-हरे शैवाल के लवक को ‘क्रोमेटोफोर’ कहते हैं |
  • सबसे अधिक एस्कर्बिक अम्ल आवला में पाया जाता हैं |
  • मध्यावस्था में कोशिका विभाजन कोलचीसीन रोकता हैं |
  • अर्धसूत्री विभाजन (Meiosis) में गुणसूत्रों की संख्या आधी हो जाती हैं |

पादप कोशिका और जन्तु कोशिका की संरचना में अन्तर

पादप कोशिका (Plant Cell) जन्तु कोशिका (Animal Cell)
1.    पादप कोशिका में लवक (Plastid) पाया जाता हैं (जीवाणु और कवक में लावक नहीं होते हैं) 1.    इनमें लवक (Plastid) नहीं पाया जाता हैं |
2.    इनमें सेल्युलोज की बनी सुदृढ़ एवं निर्जीव कोशा-भित्ति पायी जाती हैं | 2.    इनमें कोशा-भित्ति अनुपस्थित होती हैं |
3.    कोशिका के बीच में एक रिक्तिका पायी जाती हैं | 3.    इनमें रिक्तिकाएँ नहीं पायी जाती हैं |
4.    पादप कोशिका में सेन्ट्रोसोम नहीं होता हैं | ये केवल शैवाल और कवकों में पाये जाते हैं | 4.    इनमें सेन्ट्रोसोम उपस्थित होता हैं | यह कोशा विभाजन में सहायक होता हैं |
5.    कोशा-विभाजन में कोशा के मध्य रेखीय भाग में एक प्लेट का निर्माण होता हैं | 5.    कोशा-विभाजन में कोशा अन्तवर्लन द्वारा दो भागों में बंट जाता हैं |
  • कोशिका विभाजन की टीलोफेज (Telophase) अवस्था में केन्द्रक कला और केन्द्रिका गायब होने के बाद पुनः प्रकट हो जाते हैं |
  • पादप कोशिका में लाइसोसोम नहीं पाया जाता हैं |
  • अनुवांशिकता के वाहक ‘जीन्स’ हैं |
  • ब्रहात्वचा पौधों में पाया जाने वाला सबसे बाहर का आवरण होता हैं, जो रन्ध्रो (Stomata) तथा वातरंध्रों (Lenticles) को छोड़कर, नीचे से लेकर ऊपर तक, पौधों के सारे शरीर को ढके रहता हैं |
  • मूल (Root) में सबसे बाहर की परत ‘मुलीय त्वचा’ या ‘रोमधर’ कहलाती हैं | इसका मुख्य कार्य भूमि से जल तथा लवणों को शोषित करना होता हैं |
  • पौधों के हरे भाग मुख्य रूप से पत्तियों की ब्रह्मत्वचा में बहुत ही छोटे-छोटे छिद्र होते हैं, जिनको रन्ध्र (Stomata) कहते हैं |
  • एकबीजपत्री पौधों की पत्तियों में रन्ध्र (Stomata) समान्तर पंक्तियों में होते हैं परन्तु द्विबीजपत्री पौधों की पत्तियाँ में ये बिखरे हुए पाये जाते हैं |
  • रन्ध्र (Stomata) अंधेरे (रात) में बन्द रहते हैं और प्रकाश (दिन) में खुले रहते हैं |
  • जब द्वार-कोशिकाओं में जल की मात्रा अधिक हो जाती हैं और ये ‘स्फीत’ (Turgid) हो जाती हैं तो रन्ध्र खुल जाता हैं, जब द्वार-कोशिकाओं में जल बाहर निकल जाता हैं तो ये चिपक जाती हैं और रन्ध्र बन्द हो जाता हैं |
  • द्विबीजपत्री पौधों की पत्तियों में रन्ध्र अधिकतर नीचे के तल पर होते हैं जबकि एकबीजपत्री पौधों की पत्तियों में रन्ध्र दोनों सतहों पर पाये जाते हैं |
  • पानी के धरातल पर तैरने वाली पत्तियों में रन्ध्र केवल ऊपरी सहत पर होता हैं, जबकि जलमगण पत्तियों में कोई रन्ध्र नहीं होता हैं |
  • ‘भरण-ऊतक तंत्र’ मृदुतक, स्थुलकोण ऊतक व दृढ ऊतक से बना होता हैं
  • पौधों के कोमल भागों का लचीलापन स्थूलकोण ऊतक’ से प्राप्त होता हैं |
  • पौधों में ऊतक तंत्र ‘अधिचर्म’ , भरण’ तथा ‘संवहन’ तीन प्रकार के होते हैं |
  • संवहन-ऊतक तन्त्र का मुख्य कार्य जड़ों से पानी तथा लवणों को लेकर पत्तियों तक पहुँचाना एवं पत्तियों में बने खाद को पौधों के भिन्न-भिन्न भागों में पहुँचाना हैं |
  • संवहन बण्डल का ‘जाइलम’ केन्द्र की ओर स्थित रहता हैं जबकि ‘फ्लोयम’ परिधि की ओर होता हैं |
  • ‘जाइलम’ पानी तथा खनिज लवणों को ऊपर की ओर ले जाता हैं |
  • सूरजमुखी के तने में संवहन बण्डल की संख्या 5 से 15 तक होती हैं |
  • द्विबीजपत्री स्तम्भ की अधस्त्वचा (Hypodermis) ‘स्थूलकोण-ऊतक’ की बनी होती हैं जबकि एकबीजपत्री स्तम्भ में ‘दृढ ऊतक’ की बनी हुई होती हैं |
  • एकबीजपत्री स्तम्भ में ‘अंतसत्वचा’ (Endodermis), ‘परिरम्भ’ (Pericycle) तथा ‘मज्जा’ (Pith) नहीं होते हैं |
  • जड़ में संवहन बण्डल ‘अरिय’ (Radial) होते हैं जबकि स्तम्भ में संवहन बण्डल ‘संयुक्त’ (Conjoint) होते हैं |
  • एकबीजपत्री मूल में साधरणत: जाइलम या फ्लोएम के बंडलों की संख्या 15 से 20 तक होती हैं जबकि द्विबीजपत्री मूल में यह संख्या 2 से 4 या 6 तक होती हैं |
  • द्विबीजपत्री पत्ति ‘पृष्टधारी’ होती हैं जबकि एकबीजपत्री पत्ती ‘समद्विपार्श्विक’ होती हैं |
  • एकबीजपत्री के बंडलो में ‘एधा’ (Cambium) न होने के कारन द्वितीयक वृद्धि नहीं होती जबकि द्विबीजपत्री पौधों में यह क्रिया जीवन भर होती रहती हैं |
  • ‘अनावृत्तबीजी पौधों’ (Gymnosperms) में भी द्वितीयक वृद्धि होती हैं |
  • पौधों के ‘अवशोषक’ अंग जड़ तथा पत्तियाँ होती हैं | हरे पौधों की जड़ पर एककोशिक मुलरोम पाये जाते हैं |
  • जड़ों के द्वारा दो अम्ल (1) एसिड पोटैशियम फोस्फेट एवं (2) कार्बोनिक एसिड उत्पन्न किये जाते हैं | इनकी सहायता से जल में उपस्थित अघुलनशील लवण घुलनशील दशा में आकर पौधों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं |
  • ‘केशिका जल’ ही पौधों द्वारा अवशोषित किया जाता है |
  • अंडे की झिल्ली, ‘अर्द्ध पारगम्य झिल्ली’ (Semi-Permeable Membrane) होती हैं |
  • जल (Water) मुलरोमो के अन्दर ‘परासरण’ (Osmosis) की क्रिया के द्वारा प्रवेश करता हैं |
  • ‘अन्तःपरासरण’ (Endomosis) वह क्रिया हैं जिसमें बहार से पानी के अणु, अन्दर की तरफ चलते हैं, जैसे- किशकिशों में |
  • ‘बहि:परासरण’ (Exomosis) में पानी अन्दर की ओर से बाहर की ओर को किसी घोल की तरफ चलता है, जैसे – अंगूर में |
  • ‘विसरण’ (Diffusion) की क्रिया केवल द्रवों (जल के अणुओं) में ही होती हैं |
  • ‘परासरण’ (Osmosis) की क्रिया केवल झिल्ली के, सीधे ही हो जाती है, जबकि परासरण की क्रिया दो घोलों के बीच, किसी ‘अर्द्धपारगम्य झिल्ली’ से होकर होती हैं |
  • साधारण रूप से पौधें के सभी भाग (पत्तियाँ, तना, पुष्प तथा फल) वाष्पोत्सर्जन करते हैं, परन्तु अधिकतर वाष्पोत्सर्जन पत्तियों द्वारा होता हैं |
  • ‘वाष्पोत्सर्जन’ (Transpiration) में जल वाष्प के रूप में बाहर निकलता हैं, जबकि ‘बिन्दु-स्त्राव’ (Guttation) में जल तरल या द्रव के रूप में बाहर निकलता हैं |
  • ‘वाष्पोत्सर्जन’ (Transpiration) की क्रिया सूर्य के प्रकाश में होती हैं, जबकि ‘बिन्दु-स्त्राव’ (Guttation) की क्रिया रात तथा प्रातः के समय होती हैं |
  • हरुमासवाद को ‘वोन हेल्मोन्ट’ नामक वैज्ञानिक ने अपने प्रयोग द्वारा 1600 ई० में रदद् किया |
  • जोसेफ प्रिस्टले ने 1772 में अपने प्रयोग से दिखाया की पौधे अशुद्ध (CO2 युक्त) वायु को शुद्ध (O2 युक्त) बनाते हैं अर्थात् हरे पौधे प्रकृति की दूषित वायु को शुद्ध करते हैं |
  • हरे सजीव पौधों में प्रकाशीय ऊर्जा का रासायनिक ऊर्जा में परिवर्तन की क्रिया को ‘प्रकाश-संशलेषण’ कहते हैं |
  • प्रकाश-संशलेषण की क्रिया में हरे पौधे, सूर्य के प्रकाश में, तथा पत्तियों में उपस्थित पर्णहरित की सहायता से, कार्बनडाइऑक्साइड लेते हैं तथा ऑक्सीजन बाहरनिकालते हैं | इस क्रिया में CO2 पानी से मिलकर कार्बोहाइड्रेटस जैसे- शर्करा बनाती हैं |
  • हरे पौधे सूर्य की ऊर्जा का केवल 1/2000वाँ भाग ही उपयोग में लाते हैं |प्रकाश संशलेषण की क्रिया में बाहर निकलने वाली ऑक्सीजन सारी की सारी जल से निकलती हैं |
  • प्रकाश-संशलेषण क्रिया का अन्तिम उत्पाद (End Product) ‘मंड’ (Starch) हैं, जो अघुलनशील होता हैं |
  • मंड को शर्करा में बदलने का कार्य ‘डाइस्टेज’ (Diastase) नामक एन्जाइम करता हैं |
  • ‘इनुलिन’ नामक कार्बोहाइड्रेट कम्पोजटी, लिलिएसी तथा एमारिलिडेसी कुलों के भूमिगत भागों में पाया जाता हैं | यह डहेलिया कीजड़ो में प्रचुर मात्रा में मिलता हैं |
  • गन्ना, केला, चुकन्दर में ‘केनशुगर’ (Cane Sugar) पाया जाता हैं |
  • ‘हेमीसेल्युलोज’ खजूर भ्रूणपोष में पाया जाता हैं तथा ‘साइटेज’ (Cytas) नामक एन्जाइम के द्वारा एक प्रकार की शर्करा में बदल जाता हैं |
  • श्वसन क्रिया में पदार्थ आदि में संचित स्थितिज ऊर्जा को गतिज ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता हैं |
  • ग्लाइकोलिसिस की क्रिया में ग्लूकोस (C3H12O6) ‘पाइरुविक-अम्ल’ में बदल जाता हैं |
  • क्रेब्स चक्र का आरम्भ ‘पाइरुविक अम्ल’ (C3H4O3) के साथ होता हैं | इस क्रिया में 22 ATP उत्पन्न होते हैं |
  • क्रेब्स चक्र की सारी क्रिया ‘माइटोकोनड्रीया’ में होती हैं |
  • किण्वन में O2 की आवश्यकता नहीं होती हैं |
  • श्वसन-क्रिय में पौधे O2

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *