उत्तरवैदिक कल में राज पद की उत्पत्ति के सिद्धान्त
उत्तरवैदिक साहित्य में राज्य एवं राजा के प्रादुर्भाव के विषय में अनेक सिद्धान्त मिलते हैं – राजा के पद के जन्म के बारे में ऐतरेय ब्राह्मण से सर्वप्रथम जानकारी मिलती है।
1 सैनिक आवश्यकता का सिद्धान्त:- ऐतरेय ब्राह्मण का उल्लेख है कि एक बार देवासुर संग्राम हुआ। बार – बार पराजित होने के पश्चात सब इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि राजाविहीन होने के कारण ही हमारी पराजय होती है। अतः उन्होंने सोम को अपना राजा बनाया और पुन: युद्ध किया। इस बार उनकी विजय हुई। अतः इससे ज्ञात होता है कि राजा का प्रादुर्भाव सैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हुआ था। तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी इसी मत से सम्बन्धित एक उल्लेख प्राप्त होता है, इसमें यह कहा गया है कि समस्त देवताओं ने मिलकर इन्द्र को राजा बनाने का निश्चय किया, क्योंकि वह सबसे अधिक सबल और प्रतिभाशाली देवता था।।
2 समझौते का सिद्धान्त:- शतपथ ब्राह्मण में एक उल्लेख के अनुसार जब कभी अनावृष्टि काल होता है तो सबल निर्बल का उत्पीड़न करते हैं। इस दुर्वह परिस्थिति को दूर करने के लिए समाज ने अपने सबसे सबल और सुयोग्य सदस्य को राजा बनाया था और समझौते के अनुसार अपने असीम अधिकारों को राजा के प्रति समर्पित कर दिया।
3 दैवी सिद्धान्त:- उत्तरवैदिक काल में राजा को दैव पद भी दिया जाने 1796 अधिकार विभिन्न प्रकार के अनुष्ठानों ने राजा की शक्ति को बढ़ाया। कई तरह के लंबे और राजकीय यज्ञानुष्ठान प्रचलित हो गये। राजाओं का राज्याभिषेक होता था। राज्याभिषेक के समय राजा राजसूय यज्ञ करता था। यह यज्ञ सम्राट का पद प्राप्त करने के लिए किया जाता था, तथा इससे यह माना जाता था कि इन यज्ञों से राजाओं को दिव्य शक्ति प्राप्त होती है।राजसूय यज्ञ में रलिन नामक अधिकारियों के घरों में देवताओं को बलि दी जाती थी। है अश्वमेध यज्ञ तीन दिनों तक चलने वाला यज्ञ होता था। समझा जाता था कि अश्वमेध – अनुष्ठान से विजय और सम्प्रभुता की प्राप्ति होती है। अश्वमेध यज्ञ में घोड़ा प्रयुक्त होता था। वाजपेय यज्ञ में, जो सत्रह दिनों तक चलता था, राजा की अपने सगोत्रीय बन्धुओं के साथ रथ की दौड़ होती थी।
राजा देवता का प्रतीक समझा जाता था। अथर्ववेद में राजा परीक्षित को ‘मृत्युलोक का देवता’ कहा गया है। राजा के प्रधानकार्य सैनिक और न्याय सम्बन्धी होते थे। वह अपनी प्रजा और कानूनों का रक्षक तथा शत्रुओं का संहारक था। राजा स्वयं दण्ड से मुक्त था परन्तु वह राजदण्ड का उपयोग करता था। सिद्धान्ततः राजा निरंकुश होता था परन्तु राज्य की स्वेच्छाचारिता कई प्रकार से मर्यादित रहती थी। उदाहरणार्थ
1 राजा के वरण में जनता की सहमति की उपेक्षा नहीं हो सकती थी।
2 अभिषेक के समय राज्य के स्वायत्त अधिकारों पर लगायी गयी मर्यादाओं का निर्वाह करना राजा का कर्तव्य होता था।
3 राजा को राजकार्य के लिए मंत्रिपरिषद पर निर्भर रहना पड़ता था।
4 सभा और समिति नामक दो संस्थायें राजा के निरंकुश होने पर रोक लगाती थीं।
5 राजा की निरंकुशता पर सबसे बड़ा अंकुश धर्म का होता था। अथर्ववेद के कुछ सूक्तों से पता चलता है कि राजा जनता की भक्ति और समर्थन प्राप्त करने के लालायित रहता था। कुछ मन्त्रों से पता चलता है कि अन्यायी राजाओं को प्रजा दण्ड दे सकती थी तथा उन्हें राज्य से बहिष्कृत कर सकती थी। कुरुवंशीय परीक्षित जनमेजय तथा पांचाल वंश के राजाओं प्रवाहन, जैवालि अरुणि एवं श्वेतकेतु के समृद्धि के बारे में जानकारी अथर्ववेद में मिलती है।